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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं पहुँचाता। पश्चिममें भी इस बातके ऐतिहासिक दृष्टान्त मौजूद हैं। लेखकने वीर पुरुषोंके सम्बन्धमें भी एक अकल्पनीय कल्पना करनेकी भूल की है। यदि केनेडी यों ही खड़ा-खड़ा देखता रहता और उसकी बच्चीको सिंह फाड़कर खा जाता तो यह किसी भी सूरतमें अहिंसा न होती, बल्कि निरी हृदयहीन कायरता होती जो कि अहिंसाके बिलकुल विपरीत है। लेखकका आखिरी प्रश्न ऐसा है जिससे कि इस पत्रका वास्तविक उद्देश्य प्रकट होता है। उसमें लेखकने हमारे अपने जमानेके इतिहासके प्रति घोर अज्ञान प्रकट किया है। उनको जानना चाहिए कि जिस आन्दोलनके लिए मैं अपनेको जिम्मेवार मानता है वह ब्रिटिश सिंहकी आत्मासे की जा रही उस तरहकी अपील नहीं है जैसी कि लेखकका खयाल है। इस आन्दोलनकी अपील भारतवर्षकी आत्मासे है कि वह जागे और अपने आपको पहचाने। यह आन्तरिक शक्तिको विकसित करनेका आन्दोलन है। इसलिए अपने अन्तिम रूपमें यह निःसन्देह ब्रिटिश सिंहकी आत्माके प्रति अपील तो है; परन्तु उस अवस्थामें वह बराबरीके स्तरपर की गई अपील होगी। एक भिखारीकी दातासे अपील नहीं होगी जो शायद कुछ दे दे, अथवा एक बौनेकी एक विशालकाय राक्षससे अपनी रक्षा करने की व्यर्थ अपील नहीं होगी। उस अवस्थामें उसका रूप एक आत्माकी दुसरी आत्माके प्रति की गई ऐसी जोरदार अपीलका होगा जिसे कोई रोक नहीं सकेगा। हाँ, इसमें कोई सन्देह नहीं कि हमारे अन्दर आन्तरिक शक्ति उत्पन्न हो जानेतक सिंह हमारा भक्षण करता रहेगा। किन्तु यदि भारत केनेडीकी तरह बन्दूकका सहारा लेनेको दौड़े, तब भी ब्रिटिश सिंहका भक्षण कार्य नहीं रुकेगा। परन्तु जहाँ एक तरफ केनेडी उस बन्दूकको लेने गया था जो कि उसके पास पहलेसे थी और जिसे कि वह चलाना जानता था, वहाँ दूसरी ओर भारतरूपी केनेडीका बन्दूकके लिए दौड़ना तो ब्रिटिश सिंहको बिना आवश्यक शस्त्रास्त्रके या बिना उनको चलानेका कौशल प्राप्त किये मारने की कोशिश करने जैसा होगा! मेरे तरीके में ब्रिटिश सिंहको नष्ट करने की नहीं, बल्कि उसके स्वभावको बदल देनेकी सम्भावना है। इसके अलावा केनेडीकी विधिका अनुसरण करनेका अर्थ होगा भारतवर्षको अपने अन्दर उन्हीं गुणोंको विकसित करना, जिन्हें हम आज ब्रिटिश सिंहके अन्दर निन्दनीय मानते हैं। और अन्तमें तीसरी परिस्थिति। पत्र-लेखक न केवल उसे सम्भव मानता है किन्तु उसका खयाल है कि यदि बन्दुकका सहारा नहीं लिया जाता तो फिर यही विकल्प रह जाता है, और जो भारतके सम्बन्धमें भी उतना ही अप्रस्तुत है जितना पत्रलेखक द्वारा उल्लिखित कैलिफोनियाके मामले में। भारतके पास अपनी आजादीके सिर्फ दो रास्ते हैं। या तो वह अपनी आजादी पानेके उद्देश्यसे और केवल उसी हदतक, सिर्फ अहिंसात्मक साधनोंका अवलम्बन करे, या हिंसाके पश्चिमी साधनोंको विकसित करे और साथ ही उनसे होनेवाले परिणामोंको भी भुगते।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २४–९–१९२५