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'गीता' का अर्थ


जिन्होंने ऐसी मातासे उत्तमोत्तम नम्रता सीखी है, उन सेवकोंका बहिष्कार किया जाय तो भी उन्हें उससे कुछ भी हानि न होगी।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ११-१०-१९२५
 

१७५. 'गीता' का अर्थ

एक मित्र इस प्रकार प्रश्न करते है :

'गीता' का सन्देश क्या है? हिंसा या अहिंसा? मालूम होता है यह प्रश्न कभी हल नहीं होगा। यह बात और है कि हम 'गीता' में किस सन्देशको देखना चाहते है और उसमें से कौन-सा सन्देश निकालना चाहते हैं। और यह दूसरी ही बात है कि उसको पढ़ते ही क्या छाप पड़ती है। जिसके दिलमें यह बात जम गई है कि अहिंसातत्त्व ही जीवन-सन्देश है उसके लिए तो यह प्रश्न गौण है। वह तो यही कहेगा कि 'गीता' में से अहिंसा निकलती हो तो मुझे वह ग्राह्य है। इतने भव्य ग्रन्थमें से अहिंसा-जैसा भव्य धार्मिक सिद्धान्त ही निकलना चाहिए। किन्तु यदि न निकलता हो तो भी कोई बात नहीं है। हम 'गीता' को आदरसे पूजेगे, लेकिन उसे प्रमाण-ग्रन्थ नहीं मानेंगे।[१]
कामकी भीड़में से कुछ समय निकालकर आप इसका जवाब दें तो अच्छा हो।

ऐसे प्रश्न तो हुआ ही करेंगे और जिसने कुछ अध्ययन किया है उसे उनका यथाशक्ति जवाब भी देना होगा। किन्तु इनका समाधान कर देनेपर भी आखिर यह तो कहना ही पड़ेगा कि मनुष्य करेगा वही जिसे उसका हृदय उससे करनेको कहेगा। पहले हृदय है, फिर बुद्धि। प्रथम सिद्धान्त, फिर प्रमाण। प्रथम स्फुरणा, फिर उसके अनुकूल तर्क। प्रथम कर्म और फिर बुद्धि। इसलिए बुद्धि कर्मानुसारिणी कही गई है। मनुष्य जो कुछ भी करता है या करना चाहता है उसका समर्थन करनेके लिए प्रमाण भी ढूँढ निकालता है।

इसलिए मैं यह समझता हूँ कि 'गीता' का मेरा अर्थ सबके अनुकूल न होगा। ऐसी स्थितिमें यदि मैं इतना ही कहूँ कि 'गीता' के अपने अर्थपर मैं किस तरह पहुँचा और धर्मशास्त्रोंका अर्थ निकालनेमें मैंने किन-किन सिद्धान्तोंको मान्य रखा है तो बस होगा। "परिणाम चाहे जो हो मझे तो युद्ध करना चाहिए। जो शत्रु मरने योग्य है, वे तो स्वयं ही मरे हुए है। मुझे तो उनको मारने में मात्र निमित्त बनना है।"

 
  1. इसके आगे पत्र-लेखकने विस्तारपूर्वक यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था कि यदि 'गीता' का सन्देश अहिंसा है तो फिर उसका पहला और ग्यारहवां अध्याय परस्पर असंगत है। पत्रका वह अंश छोड़ दिया गया है।