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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रावणकी बात करनेवाला इतिहास रामकी बात भी करता है और संसारको पुकार कर कहता है कि रावणका राज्य स्थायी नहीं रहा, रामने ही विजय प्राप्त की। राजाओंके शासनमें धर्मका प्रवेश होनेपर ही उनका राज्य चलता रह सकता है। जिसके राज्यके अन्दर एक भी व्यक्ति भूखों न मरे, जिसके राज्य में कोई भी बालिका निर्भय होकर चारों ओर विचरण कर सके और उसपर एक भी दुराचारी कटाक्ष न कर पाय, जो राजा प्रजाको अपनी सन्तान माने और पराई स्त्रीको माँ-बहनके रूपमें जाने, जो राजा शराब न पीये, व्यसन न करे, रैयतको सुलाकर सोये और खिलाकर खाये ऐसे राजाके राजतन्त्रका मैं पुजारी हूँ। मैं इसकी रट लगाये रहता हूँ। ऐसे राजा हों, इसके लिए में राजा व प्रजाके बीच प्रेम चाहता हूँ। जब ऐसे राजा होंगे तब देशमें अकाल और भुखमरी नहीं होगी, व्यभिचार नहीं होगा, शराबखोरी नहीं होगी। लेकिन आज तो राज्यों में ये सब वस्तुएँ भरी हुई हैं, इससे क्या मालूम होता है? राजा अपना धर्म भूल गये हैं—अपनी प्रजाके जान-माल और धर्मकी रक्षा करनेके धर्मको भूल गये हैं। वे स्वयं पवित्रताका पालन नहीं कर सके हैं। शास्त्र तो पुकारकर कहते हैं कि जिस कुलमें श्रीकृष्ण हुए उसमें भी व्यभिचार, शराब और जुएका त्रिदोष दाखिल हआ और इसी कारण श्रीकृष्णके जीते-जीही उस कुलका नाश हो गया। श्रीकृष्णको यादव वंशके सत्यानाशका साक्षी होना पड़ा। इसीसे कहता हूँ कि ऐसे राजा बनो जिससे कच्छकी जनताकी कोई शिकायत न रहे। राजा पवित्र और अच्छा हो तबतक तो जनता उसकी मदद करती है, न्याययुक्त शासनको चलाने में मदद देती है, कर चुकाती है और यदि वह अत्याचारी हो तो? तो शास्त्रका कहना है कि प्रजाका धर्म यह हो जाता है कि वह सारी बात राजासे कह दे। क्योंकि यह बात ध्यानमें रहनी चाहिए कि 'यथा राजा तथा प्रजा' वाली कहावत जितनी सच्ची है उतना ही 'यथा प्रजा तथा राजा' कहना भी सच है; यही बात दूसरे शब्दोंमें एक अंग्रेजी कहावतमें भी कही गई है 'आप जैसे शासनके योग्य होंगे, आपको वैसा ही शासन मिलेगा।' इसलिए दोनोंका परस्पर एक-दूसरेपर प्रभाव पड़ा ही करता है। प्रजाके सत्य, शौर्य, दृढ़ताका राजापर प्रभाव हुए बिना नहीं रहता और राजाके अत्याचार व असत्यका भी प्रजापर प्रभाव अवश्य पड़ता है। तो फिर कच्छकी साहसिक, दरिया लाँघनेवाली और पृथ्वीको प्रदक्षिणा करके पैसा इकट्ठा करनेवाली प्रजाका क्या कर्त्तव्य है? आपने अप्रत्यक्ष रूपसे मुझसे दुखको जो-जो बातें कहीं है वे यदि सच है तो सारे दुःखोंको, सब शिकायतोंको विनय व प्रेमके साथ राजाके सम्मुख रखने में किस बातका संकोच है? महारावसे मिले बिना मैं इन सब दुःखोंपर टीका कैसे कर सकता हूँ? लेकिन यदि ये सब बातें सच हों तो मैं आपसे कहता हूँ कि इसका उपाय आपके हाथमें है। और वह उपाय अविनय अथवा अमर्यादाका नहीं बल्कि सत्य और प्रेमका है। सत्य, शौर्य और प्रेमको त्रिवेणीका जहाँ संगम होता है वहाँ कुछ भी असम्भव नहीं होता। अपने ३० वर्षके सतर्क राजनीतिक अनुभवके आधारपर मैं आपसे कहता हूँ कि आपके पास जो शिकायतें हों उन्हें एक बार दृढ़ता, सत्य और विनयके साथ महारावके सामने रखें। मैंने जो कहा है उसे