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समाजिक सहकार

कि जनता हमारा अंग है और हम जनताके अंग हैं, तो हमारी गन्दगी असम्भव हो जाये तथा हम रोगादिसे मुक्त होकर जनताके बलको बढ़ायें और उसके धनमें भी वृद्धि करें। एक लेखकने कहा है कि किसी वस्तुको उसके स्थानसे हटाकर दूसरे स्थानपर रखना ही गन्दगी बन जाती है। नदी किनारे बिखरी हुई रेत सृष्टिके सौन्दर्यमें तथा मनुष्य जातिके सुखमें वृद्धि करती है। पर यही रेत अगर आँखमें पड़े तो वह कचरा कहलायेगी और अनाजमें पड़ जाये तो उसे अखाद्य बना देगी। मैला मनुष्योंके चलनेके रास्तेपर डाल दें तो वह गन्दगी है, वहाँ वह दुर्गन्ध फैलाता है, रोगादि पैदा करता है; किन्तु यदि इसीको खेतमें गाड़ दें तो वही सोना हो जाता है। किसान उसका संग्रह करते हैं, खुशीसे पैसे देकर खरीदते हैं। ऐसा प्रत्येक वस्तुके बारेमें कहा जा सकता है। अतः यदि समाजको शौचके सामान्य नियमोंकी शिक्षा मिले और यदि समाज तद्नुरूप व्यवहार करे तो सामाजिक सहकार उत्पन्न हो और मलमूत्रादि वस्तुओंको जिनकी गिनती गन्दगीमें की जाती है, खेतमें जाकर डालें तो हम सोना उगलनेवाला खाद बना सकते हैं।

यह कार्य डॉ॰ हरिप्रसाद अकेले नहीं कर सकते। दस-बीस आदमी भी इसे नहीं कर सकते। इसमें सारे समाजकी मदद चाहिए। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। एक तो कड़े कानून बनाकर और सख्ती करके और दूसरे लोगोंको समझा-बुझाकर ऐसे कार्यके प्रति उनके मनमें दिलचस्पी पैदा करके और इस तरह उन्हें इस किस्मके सुधार स्वेच्छासे अपनानेके लिए राजी करके।

डा॰ हरिप्रसादने अपने लेखमें तो चार दृष्टान्त दिये हैं वे अनुकरणीय हैं। धनिक वर्गोंमें कितने ही व्यक्ति ऐसा मानते दिखाई देते हैं कि लाखों रुपया खर्च करके संगमरमरके सुन्दर महल बना लेने और आसपास बाड़ लगानेसे वे सुखी और सुरक्षित हो गये। सत्य तो यह है कि यदि उनके आसपास गन्दगी कायम रहती हो तो उनके इस संगमरमरके महलका इतना ही मतलब है कि उन्होंने अपने लिये मिट्टीके बजाय संगमरमरका कैदखाना बनाया है और वे अनेक प्रकारकी दुर्गन्ध तथा अनेक प्रकारके रोगोंके भयसे घिर गये हैं। जितने पैसे वे लोग महलपर खर्च करते हैं यदि उससे आधा लोगोंको आसपासको वायु शुद्ध करनेकी शिक्षा देनमें खर्च करें तो वे महलका सच्चा सुख ले सकते हैं और दूसरोंको भी सुखी कर सकते हैं। इस तरह वे स्वार्थ और परमार्थं दोनोंका सुयोग साध सकते हैं।

अहमदाबाद-जैसे शहरोंका सुधार, उनकी सफाई आदि केवल कर बढ़ानेसे नहीं हो सकती, ऐसी मेरी मान्यता है। यह सम्भव है कि इसके लिए कुछ हदतक करोंमें वृद्धि करना जरूरी हो लेकिन अधिकांशतः तो यह चीज धनिकोंकी उदारतासे ही हो सकती है। बच्चोंके घूमनेके लिए अहमदाबादमें स्थान-स्थानपर छोटे-छोटे बगीचे क्यों नहीं हो सकते? रास्ते चौड़े क्यों नहीं हो सकते? गलियाँ ऐसी साफ क्यों नहीं हो सकती, जिनपर हम बिना संकोच नंगे पाँव चल सकें? ये सब सुधार तभी हो सकते हैं जब अमीरों और गरीबों अर्थात् सारे नागरिकोंके बीच—सामाजिक सहकार हो तथा अमीर लोग सारे शहरको अपना