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२२. अहिंसाकी समस्या

ऐसे प्रश्न मुझसे बराबर पूछे जाते हैं कि हमारे कार्यका स्वरूप कब क्या करनेसे अहिंसाका और कब क्या करनेसे हिंसाका हो जाता है। कुछ सवाल तो ऐसे होते हैं, जिनसे पूछनेवालेका अज्ञान ही प्रकट होता है, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जिनसे प्रश्नकर्ताकी भारी कठिनाईका भी परिचय मिलता है। एक पंजाबी भाईने प्रश्न पूछा है जिसका उत्तर यहाँ देने योग्य है। प्रश्न इस प्रकार है :

शेर, भड़िये आदि आकर पशु और मनुष्यको उठा ले जायें तो क्या करें? अगर पानीमें कीटाणु आदि हों तो क्या करें?

मेरी अल्पमतिके अनुसार इसका साधारण उत्तर तो यही है कि जब शेर, भेड़िये आदिका उपद्रव हो तो उनका नाश करना अनिवार्य है। पानीमें मौजूद कीटाणुओंका नाश करना भी अनिवार्य है। लेकिन अनिवार्य हिंसा भी हिंसाके बजाय अहिंसा नहीं कही जा सकती; हिंसा तो हिंसा ही बनी रहेगी। यदि कोई शेर-भेड़ियेका नाश किये बिना अपना काम चला ले तो मैं बेखटके कहूँगा कि यह उत्तम है। पर यह कौन कर सकता है? वही जो शेर-भेड़ियेसे डरता नहीं है, बल्कि मित्रकी तरह उनसे मिल सकता है। जो डरके मारे हिंसा नहीं करता वह तो हिंसा कर ही चुका। बिल्लीके साथ चूहेका व्यवहार अहिंसाका व्यवहार नहीं है। उसका मन तो निरन्तर बिल्लीके साथ हिंसा करता रहता है। निर्बल होनेके कारण वह बिल्लीको मार नहीं सकता। हिंसा करनेकी पूरी सामर्थ्य रखते हुए भी जो हिंसा नहीं करता, वही अहिंसाके धर्मका पालन करनेकी शक्तिसे सम्पन्न है। जो मनुष्य स्वेच्छा और प्रेमभावसे ही प्रेरित होकर किसीकी हिंसा नहीं करता, वही अहिंसाधर्मका पालन करता है। अहिंसाका अर्थ है प्रेम, दया, क्षमा। शास्त्रोंने उसे वीरोंका गुण बताया है। यह वीरता शरीरकी नहीं, बल्कि हृदयकी है। क्षीणकाय व्यक्ति भी दूसरोंकी मददसे घोर हिंसा करते हुए देखे गये हैं। और युधिष्ठिरके समान शरीरसे बलवान लोग भी राजा विराट-जैसोंको क्षमा प्रदान करते हुए देखे गये है। मतलब यह है कि जबतक हृदयका बल प्राप्त नहीं हुआ, तबतक किसीने अहिंसाधर्मका पालन किया, ऐसा माना ही नहीं जा सकता। आजकलकी वणिक अहिंसा अहिंसा नहीं। इसमें तो प्रायः घोर निर्दयता दिखाई देती है; और अज्ञान तो इसमें है ही।

मैं जानता हूँ कि हममें यह दुर्बलता है। इसीलिए मैंने खेड़ामें महायुद्धके समय सिपाहियोंकी भरती करनेका भारी प्रयत्न किया था,[१] और इसीसे मैंने उस समय कहा था कि ब्रिटिश हुकूमतने जो अनेक जघन्य कृत्य किये हैं उनमें उसका एक सबसे जघन्य कृत्य यह है कि उसने यहाँको जनताको निःशस्त्र करके निर्वीय बना दिया है। आज भी मेरा वही दृष्टिकोण है। जिस किसीके मनमें भय हो वह यदि

  1. १९१८ में; देखिए खण्ड १४।