पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/९३

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टिप्पणियाँ

है, वे कठोर वास्तविकताके रूपमें सामने आ जायें। फिर भी, उसकी दलीलमें विचारोंकी एक स्पष्ट उलझन-सी दिखाई देती है। कोई मोची या भंगी जन्मके कारण अस्पृश्य है या अपने कामके कारण? अगर इसका सम्बन्ध जन्मसे है तो यह बहुत घृणित चीज है, और इसका जड़-मूलसे नाश कर देना चाहिए। पर यदि इसका सम्बन्ध कामसे है तो इसे सफाईका एक महत्त्वपूर्ण नियम माना जा सकता है। यह नियम सर्वत्र लागू होता है। कोई कोयला खोदनेवाला मजदूर जबतक अपने काममें लगा हुआ है तबतक वह लगभग अस्पृश्य है। अगर कोई उससे हाथ मिलानेके लिए आगे बढ़े तो वह खुद ही यह कहते हुए हाथ मिलानेसे इनकार कर देगा कि मैं अभी बहुत गंदा हूँ। लेकिन, अपना काम खत्म कर लेने के बाद वह स्नान करता है, अपने कपड़े बदलता है और तब देशके बड़ेसे-बड़े आदमीसे भी तपाकसे मिलता है और यह ठीक ही है। इसलिए जन्मके साथ जुड़े कलंकको, अर्थात् जन्म-सम्बद्ध उच्चता और नीचताको भावनाके दूर होते ही वर्णाश्रम धर्म पवित्र हो जायेगा। तब भंगीके बच्चे हीन हुए बिना अथवा स्वयं हीनताका अनुभव किये बिना भी भंगी रह सकते है। और वे उतने ही स्पृश्य अथवा अस्पृश्य होंगे जितने कि ब्राह्मण। इसलिए दोष वंश-परम्पराके नियमको मान्यता देने में नहीं है, और न इस नियमको स्वीकार करने में है कि माँ-बापके गुण और उनकी योग्यतायें पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनकी सन्तानमें संक्रमित होती जाती है, बल्कि असमानताके गलत विचारमें है।

मेरे विचारसे वर्णाश्रम धर्मकी कल्पना किसी संकुचित भावनासे नहीं की गई थी। इसके विपरीत, इसमें श्रमिकोंको, शूद्रोंको भी वही दर्जा दिया गया जो विचारकोंको, ब्राह्मणोंको दिया गया था। यह व्यक्तिके गुणोंके निखार और दुर्गुणोंके नाशकी सुविधा देता था, और यह मानवीय वृत्तियोंको सामान्य सांसारिक क्षेत्रसे मोड़कर जो चीज स्थायी और आध्यात्मिक है, उसकी ओर उन्मुख करता था। ब्राह्मणों और शूद्रों, दोनोंके जीवनका उद्देश्य एक ही था—अर्थात् मोक्ष, न कि यश या धन और ऐश्वर्यकी प्राप्ति। बादमें वर्णाश्रमके इस उच्च आदर्शमें बुराइयाँ आ गई और लोगोंने निस्सार विधि-विधानोंको तथा कुछने तो अपने-आपको उच्च मान लेने और दूसरोंको नीच मान लेनेकी वृत्तिको ही वर्णाश्रम धर्म समझ लिया। इस बातको स्वीकार करनेसे कोई वर्णाश्रम धर्मकी कमजोरी प्रकट नहीं होती। इससे तो मानव स्वभावको ही कमजोरी प्रकट होती है--यह इस बातको स्वीकार करना है कि जहाँ कुछ विशेष परिस्थितियोंमें मनुष्य बड़ीसे-बड़ी ऊँचाईतक उठ सकता है, वहाँ वह कुछ दूसरी परिस्थितियोंमें नीचेसे-नीचा भी गिर सकता है। इसलिए सुधारकोंका उद्देश्य अस्पृश्यताके अभिशापंको दूर करके वर्णाश्रम धर्मको पुनः अपने उचित स्थानपर प्रतिष्ठित करना है। सुधारके बाद अपने इस परिवर्तित रूपमें वर्णाश्रम धर्म टिकता है अथवा लुप्त हो जाता है, यह तो भविष्य ही बतायेगा। निस्सन्देह यह बात उस नये ब्राह्मण वर्गपर निर्भर करती है, जो हमारे समाजमें चुपचाप उदित हो रहा है—अर्थात् उन लोगों पर जो तन, मन और आत्मासे हिन्दूधर्म और हिन्दुस्तानकी सेवा करनेके लिए अपना जीवन अर्पित कर रहे हैं। अगर उनकी कोई सांसारिक आकांक्षाएँ नहीं है, तो निश्चय

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