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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

मने दूसरे दिन प्रमुख हिन्दुस्तानियोंको इकट्ठा किया और उनको इस काननूका शब्दश: अर्थ समझाया। फलतः इसका जो असर मुझपर हुआ वही असर उनपर भी हुआ। उनमें से एकने तो आवेशमें यह भी कहा कि यदि कोई मेरी पत्नीसे परवाना मांगने आया तो मैं तो उसे वहीं गोलीसे उड़ा दूंगा, उसके बाद चाहे मेरा कुछ भी हो। मैंने उनको शान्त किया और सब लोगोंसे कहा: 'यह मामला बहुत गम्भीर है। यदि यह विधेयक कानून बन जाये और हम इसे स्वीकार कर लें तो उसके अनुकरणमें पूरे दक्षिण आफ्रिकामें कानून बनाया जायेगा। मुझे तो इसका हेतु ही यहाँ हमारा अस्तित्व मिटा देना लगता है। यह कानून अखीरी नहीं, हमें दक्षिण आफ्रिकासे खदेड़नेका पहला कदम है। इस- लिए हमारे ऊपर ट्रान्सवालमें रहनेवाले दस हजार या पन्द्रह हजार हिन्दुस्तानियोंकी ही जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि दक्षिण आफ्रिकामें बसे हुए सभी हिन्दुस्तानियोंकी जिम्मेदारी है। फिर यदि हम इस विधेयकको पूरी तरह समझें तो हमपर समूचे हिन्दुस्तानकी प्रतिष्ठाकी रक्षा करनेकी जिम्मेदारी भी आती है, क्योंकि इस विधेयकसे हमारा ही अपमान नहीं होता, बल्कि समस्त हिन्दुस्तानका अपमान होता है । अपमानका अर्थ ही है निर्दोष व्यक्तिका मान भंग होना। यह नहीं कहा जा सकता कि हम ऐसे कानूनके योग्य हैं। हम निर्दोष हैं और जातिके किसी भी निर्दोष अंगका अपमान समूची जातिके अपमानके बराबर है। इसलिए यदि हम ऐसी विषम स्थितिमें उतावली करेंगे, धैर्य खो देंगे और क्रोधमें आ जायेंगे तो हम इस आक्रमणसे अपनी रक्षा नहीं कर सकेंगे। और यदि हम शान्त चित्तसे उचित उपाय खोजकर उचित समयपर तदनुसार कार्य करेंगे, संगठित रहेंगे और इस अपमानके विरुद्ध कार्रवाई करते हुए हमें जो कुछ कष्ट सहन करने पड़ें उन सबको सहन करेंगे तो मेरा विश्वास है कि ईश्वर स्वयं हमारी सहायता करेगा। तब उपस्थित सभी लोगोंने इस विधेयकको गम्भीरताको समझकर यह निश्चय किया कि एक सार्वजनिक सभा की जाये और उसमें कोई प्रस्ताव पास किया जाये। इसके लिए एक यहूदी नाट्यशाला (एम्पायर थियेटर) किरायेपर ली गई और उसमें सभा बुलाई गई।

अब पाठक समझ सकेंगे कि इस प्रकरणके शीर्षकमें इस कानूनका नाम 'खूनी कानून' क्यों दिया गया है। मैंने इस प्रकरणका यह विशेषण स्वयं नहीं चुना है। दक्षिण आफ्रिकामें इस कानूनका परिचय देने के लिए इसी विशेषणका प्रयोग किया जाता था।

अध्याय १२

सत्याग्रहका जन्म

नाट्यशाला (एम्पायर थियेटर) में ११ सितम्बर, १९०६ को सभा की गई। इसमें ट्रान्सवालके विभिन्न नगरोंके प्रतिनिधि बुलाये गये। किन्तु मुझे स्वीकार करना चाहिए कि सभामें रखनेके लिए मैंने जो प्रस्ताव तैयार किये थे उनका पूरा अर्थ तो मैं स्वयं भी नहीं समझ सका था और न मैं उस समय यह अनुमान ही कर सका था कि उसका क्या परिणाम हो सकता है। सभाके दिन नाट्यशाला ठसाठस भरी

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