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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हुई थी। सभीके मुखपर यह भाव दिखाई दे रहा था कि कुछ नया काम करना है और कोई नई बात होनी है। ट्रान्सवाल ब्रिटिश भारतीय संघके अध्यक्ष श्री अब्दुल गनी सभापति निर्वाचित किये गये। वे ट्रान्सवालके बहुत पुराने निवासी थे और मुहम्मद कासिम कमरुद्दीन नामकी प्रसिद्ध पेढ़ीके भागीदार और उसकी जोहानिसबर्ग शाखाके व्यवस्थापक थे । सभामें जो प्रस्ताव प्रस्तुत किये गये उनमें मुख्य प्रस्ताव चौथा प्रस्ताव ही था। इसका आशय यह था कि यदि यह विधेयक पूरी शक्तिसे विरोध करनेपर भी कानून बना दिया जाय तो हिन्दुस्तानियोंको उसे नहीं मानना चाहिए और उसको न माननेके फलस्वरूप उन्हें जो भी कष्ट सहन करने पड़ें वे सब उनको सहन करने चाहिए।

मैंने इस प्रस्तावको सभामें उपस्थित लोगोंके सामने भली-भाँति समझाकर रखा। लोगोंने सब बातें शान्तिपूर्वक सुनीं । सभाकी कार्रवाई हिन्दी और गुजरातीमें ही की गई थी, इसलिए कोई उसे न समझ सका हो, ऐसा सम्भव नहीं था । जो तमिल- भाषी और तेलगु-भाषी भाई हिन्दी नहीं समझ सकते थे उनको सब बातें उन भाषाओंके वक्ताओंने भली-भांति समझा दीं । प्रस्ताव नियमपूर्वक रखा गया और कई लोगोंने इसका अनुमोदन- समर्थन किया। वक्ताओंमें सेठ हाजी हबीब एक थे। वे भी दक्षिण आफ्रिकाके बहुत पुराने और अनुभवी निवासी थे। उन्होंने बहुत जोशीला भाषण दिया और आवेशमें आकर यहांतक कह दिया, "हमें यह प्रस्ताव खुदाको हाजिर-नाजिर जानकर स्वीकार करना है। हम डरकर इस कानूनको कभी नहीं मानेंगे। मैं तो खुदाकी कसम खाकर कहता हूँ कि इस कानूनको हगिज नहीं मानूंगा। इस सभा में मौजूद आप लोगोंको भी मैं सलाह देता हूँ कि आप सब भी खुदाको हाजिर-नाजिर जानकर ऐसी कसम लें । "

प्रस्तावके समर्थनमें दूसरे लोगोंने भी तीखे और जोरदार भाषण दिये। जब सेठ हाजी हबीब बोलते-बोलते कसमकी बातपर आये तब मैं चौंका और हुआ। मुझे अपनी और कौमकी जिम्मेदारीका पूरा-पूरा खयाल तभी हुआ । कौमने अबतक बहुतसे प्रस्ताव पास किये थे। उनमें अधिक सोच-विचार और नये अनुभवोंके बाद परिवर्तन भी किये थे। उन प्रस्तावोंपर कुछ लोगोंने अमल नहीं किया, ऐसा भी हुआ था । संसारभरमें सार्वजनिक जीवनका यह स्वाभाविक अनुभव है कि प्रस्तावोंमें परिवर्तन किये जाते हैं और जो लोग उनसे सहमत होते हैं वे कई बार उनके अनुसार नहीं चलते। किन्तु इन प्रस्तावोंमें ईश्वरका नाम बीचमें नहीं लाया जाता । तात्त्विक दृष्टिसे विचार करें तो किसी निश्चयमें और ईश्वरका नाम लेकर की गई किसी प्रतिज्ञामें कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। यदि कोई विवेक शील मनुष्य विचारपूर्वक कोई निश्चय करता है तो फिर वह उससे विचलित नहीं होता। उसके मनमें उस निश्चयका महत्व उतना ही होता है जितना ईश्वरको साक्षी रखकर की हुई प्रतिज्ञाका । किन्तु दुनिया तात्त्विक आधारपर नहीं चलती। वह तो सामान्य निश्चय और ईश्वरको साक्षी रखकर की गई प्रतिज्ञाके बीच महासागरोंका

१. देखिए खण्ड ५, १४ ४३३-३४ ।

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