पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/११

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भूमिका

इस खण्ड में २२ नवम्बर, १९२५ से १० फरवरी, १९२६ तककी सामग्री आती है। खण्डका प्रारम्भ गांधीजी की पूस्तक 'दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास' से प्रारम्भ होता है। यह पुस्तक क्रमशः 'नवजीवन' में छपी थी और उसकी आखिरी किस्त प्रकाशित हुई थी 'नवजीवन' के २२-११-१९२५ के अंक में। यह पुस्तक गांधीजी के उस महान् संघर्ष के प्रारम्भ और उसकी प्रगतिको समझने के लिए आधारभूत सामग्री प्रस्तुत करती है जिसको गांधीजी ने उसकी समाप्ति के बहुत दिनों बाद शान्त भावसे चिन्तन करके समस्त सावधानी के साथ इस प्रकार लेखबद्ध किया; और इसमें उनका उद्देश्य यह रहा कि जो लोग सत्यके शोधकी प्रक्रिया और उसके अमलकी तफसीलमें दिलचस्पी रखते होंगे उनको इससे मदद मिलेगी। इस पुस्तक में घटनाओं के विस्तृत वर्णन हैं; सम्बन्धित व्यक्तियों के रेखाचित्र हैं। साथ ही उन विचारों का भी दिग्दर्शन है (उदाहरण के लिए हिसाब-किताब रखने के महत्त्व से सम्बन्धित विचार, पृष्ठ ९५-९६) जो गांधीजी के व्यवहार-दर्शनकी शक्ति और सरलता को स्पष्ट करते हैं।

इस खण्ड में तीन महीनों से भी कम अवधिकी सामग्री समाहित है। खण्ड के प्रारम्भ में उक्त पुस्तक की समाप्ति के बाद पहली ही बात जो आती है वह है गांधीजी का सात दिनका उपवास, जो उन्होंने आश्रम की कुछ नैतिक त्रुटियों के कारण किया था। उपवास समाप्त करने के पहले १ दिसम्बर को उन्होंने उसके विषय में विद्यार्थियों के सामने भाषण दिया और फिर उसके बाद समाचार पत्रों में एक वक्तव्य भी प्रकाशित कराया। उसके बाद वे १० दिसम्बर को वर्धा पहुँचे, ११ दिनों तक वहाँ आराम किया; २२ दिसम्बर को कानपुर के कांग्रेस अधिवेशन के लिए रवाना हो गये और २६ दिसम्बर को दक्षिण आफ्रिका से सम्बन्धित प्रस्ताव पर उन्होंने जोरदार शब्दों में अपनी बात रखी।

तीन जनवरी के 'नवजीवन' में गांधीजी ने घोषित किया कि वे एक वर्षतक सार्वजनिक सेवा से विराम ले रहे हैं और इस अवधि में आश्रम में ही रहेंगे। इस तरह दौरों आदिका कार्यक्रम रद हो गया; इस अवधि में कोई विशेष घटनाएँ भी नहीं हुई और सार्वजनिक भाषण आदि के अवसर भी बहुत कम आये। २१ दिसम्बर को वर्धा में उन्होंने जो भाषण दिया था उसमें उन्होंने आश्रम-जीवन के सौन्दर्य का बड़े ही हृदय-स्पर्शी ढंगसे उल्लेख किया है।

इस खण्ड में दक्षिण आफ्रिका में भारतीयों की समस्या प्रधान रूप से सामने आती है। यह उपस्थित हुई थी डॉ० मलान के विधेयक के कारण, जिसके विषय में गांधी जी ने यह कहा था कि इसकी पंक्ति-पंक्तिमें रंग-द्वेषकी झलक है और यह १९१४ के गांधी-

१. इसी प्रकार गांधी जी की आत्मकथा भी नवजीवन में २९-११-१९२५ से और यंग इंडिया में ३-१२-१९२५ से क्रमश: प्रकाशित हुई थी। इसे सम्पूर्ण गांधी वाङमय के ३९ खण्ड में नवजीवन की आखिरी किस्त की तिथि ३-२-१९२९ के अन्तर्गत लिया गया है।