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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वे भी भागीदार होते हैं। हमें उनकी खातिर पाई-पाईका हिसाब रखना चाहिए। यदि निजी जीवनमें हिसाब रखना आवश्यक है तब सार्वजनिक जीवनमें तो कहना ही क्या है ? मैंने देखा है कि स्वयंसेवक ऐसा खयाल बना लेते हैं मानो वे सौंपे हुए काम और पैसेका तफसीलसे हिसाब देनेके लिए बँधे हुए ही नहीं है क्योंकि वे अवि- श्वासके पात्र तो हो ही नहीं सकते। यह तो घोर अज्ञान ही माना जा सकता है। हिसाब रखनेका विश्वास या अविश्वाससे कोई भी सम्बन्ध नहीं। हिसाब रखना तो स्वतन्त्र धर्म ही है। उसके बिना हमें अपने कामको स्वयं ही गन्दा मानना चाहिए । हम जिस संस्थामें स्वयंसेवक हों यदि उस संस्थाका नेता झूठे शिष्टाचार अथवा भयके कारण हमसे हिसाब न माँगे तो वह भी दोषका पात्र है। काम अथवा पैसेका हिसाब रखना जितना सवेतन कार्यकर्ताका कर्तव्य है उससे दुगुना स्वयंसेवकका है क्योंकि उसने अपने कामको ही अपना वेतन माना है। यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण है। मैं जानता हूँ कि सामान्यतः बहुत-सी संस्थाओं में इस ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता, इसलिए मैंने यहाँ उसकी चर्चा करनेमें इतना स्थान घेरनेका साहस किया।

अध्याय१५

कुटिल राजनीति अथवा क्षणिक हर्ष

केपटाउन उतरनेपर विशेष रूपसे जोहानिसबर्ग पहुँचनेपर मैंने समझ लिया कि हमें मदीरामें जो तार मिला था उसे हमने जितना कीमती आँका था वह वास्तवमें उतना कीमती नहीं था। इसमें तार भेजनेवाले श्री रिचका दोष न था। उन्होंने तो कानून नामंजूर किये जानेकी बात जैसी सुनी थी वैसी तारसे भेज दी थी। हम ऊपर देख चुके हैं कि उस समय अर्थात् १९०६ में ट्रान्सवाल शाही उपनिवेश था । ऐसे उपनिवेशोंके एजेन्ट अथवा प्रतिनिधि उपनिवेश मन्त्रीको अपने-अपने उपनिवेशके सम्बन्धमें परिचित रखनेके लिए इंग्लैंडमें रहते थे। वहाँ ट्रान्सवालके प्रतिनिधि सर रिचर्ड सॉलोमन थे जो दक्षिण आफ्रिकाके प्रख्यात वकील थे। लॉर्ड एलगिनने उनसे सलाह करके ही खूनी कानूनको नामंजूर करनेका निश्चय किया था । १ जनवरी १९०७ से ट्रान्सवालको उत्तरदायी शासन दिया जाना था। इसलिए लॉर्ड एलगिनने सर रिचर्ड सॉलोमनको विश्वास दिलाया कि यदि उत्तरदायी शासन मिलने के बाद विधानसभा इस कानूनको स्वीकार कर देगी तो साम्राज्य सरकार उसको नामंजूर नहीं करेगी। किन्तु उन्होंने यह भी कहा कि जबतक ट्रान्सवाल शाही उपनिवेश माना जाता है तबतक इस प्रकारके जातीय भेदभावसे युक्त कानून बनानेकी सीधी जिम्मेदारी साम्राज्य सरकारकी मानी जाती है और साम्राज्य सरकारके संविधानमें जातीय भेदभावकी नीतिको स्थान नहीं है; इसलिए मेरे लिए फिलहाल तो इस सिद्धान्तका पालन करनेके लिए सम्राट्को इस कानूनको नामंजूर करनेकी सलाह देनी जरूरी है।

१. १८ दिसम्बर, १९०६ को ।

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