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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

पास आ गया । मुझे तो उसका अता-पता भी मालूम न था। किन्तुहम तो सार्वजनिक लोग थे, इसलिए अखबारोंमें हमारी चर्चा हुई। बस उसीसे इस अंग्रेज सज्जनने हमें खोज लिया और हमसे कहा: “मैं आपकी जो कुछ भी सहायता कर सकता हूँ, करना चाहता हूँ। आप मुझे मामूली नौकरोंके करने योग्य काम देंगे तो में उसे भी करूंगा और यदि आशुलिपिमें कुछ लिखाना हो तो आप जानते ही है कि उसमें मुझ जैसा कुशल मनुष्य आपको दूसरा नहीं मिलेगा।" हमें तो दोनों ही प्रकारकी सहायताकी आवश्यकता थी । यदि मैं यह कहूँ कि इस अंग्रेजने दिन-रात बिना पैसा लिये हमारी बेगार की तो इसमें तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। रातको बारह-बारह और एक-एक बजेतक वह टाइपरायटरपर बैठा ही रहता । सीमंड्स सन्देश ले जाने और डाक पहुँचानेका काम भी हँसी-खुशी करता। मैं जानता था कि वह महीनेमें लगभग, पैंतालीस पौंड कमाता है। किन्तु वह इस सब रुपयेको अपने मित्रोंकी सहायतामें व्यय कर देता था। उस समय उसकी आयु कोई ३० वर्षकी होगी। किन्तु वह तबतक अविवाहित था और जीवन-भर अविवाहित ही रहना चाहता था। मैंने उससे बहुत आग्रह किया कि कुछ पैसा तो ले लो; किन्तु उसने इससे साफ इनकार कर दिया। उसने कहा, “यदि मैं इस सेवाका पुरस्कार ले लूं तो धर्म भ्रष्ट हो जाऊँ ।” मुझे याद है कि पिछली रातको हमें अपना सब काम निपटाते हुए और सामान बाँधते हुए रातके तीन बज गये थे। तबतक वह भी जागता रहा और हम लोग दूसरे दिन जब जहाजमें बैठ गये तभी हमसे जुदा हुआ। उससे जुदा होना बहुत दुःखजनक था। मैंने बहुतसे अवसरोंपर यह अनुभव किया है कि परोपकार करना गहुएँ वर्णके लोगोंकी ही बपौती नहीं है।

मैं युवा सार्वजनिक कार्यकर्त्ताओंकी जानकारीके लिए यह भी बता दूं कि हमने शिष्टमण्डलके खर्चका हिसाब इतनी सावधानीसे रखा था कि जहाजमें सोडा-वाटर पीते तो उसकी रसीद भी खर्चके साथ सबूतके तौरपर सँभाल कर रख लेते थे। इसी . तरह हम तारोंकी रसीदें भी रखते थे। मुझे याद नहीं आता कि हिसाबकी तफसीलमें हमने कहीं किसी रकमके आगे 'फुटकर खर्च' लिखा हो। हमारे लिए फुटकर खर्च- जैसी कोई मद तो थी ही नहीं । 'याद नहीं आतां' यह कहनेका कारण इतना ही है कि यदि दिनके अन्तमें एकाध बार खर्च लिखते वक्त दो-चार शिलिंगके खर्चका विवरण याद न रहा हो और वह फुटकर खर्चमें लिख दिया हो तो कह नहीं सकता ।

मैंने इस जीवनमें एक बात बिलकुल साफ देख ली है कि हम वयस्क होते ही न्यासी अथवा उत्तरदायी बन जाते हैं। हम जबतक माँ-बापके साथ रहते हैं तबतक यदि वे हमें कोई काम अथवा पैसा सौंपे तो हमें उसका हिसाब उनको देना ही चाहिए। वे हमपर विश्वास रखकर हिसाब न माँगें तो हम इस उत्तरदायित्वसे मुक्त नहीं होते। जब हम माँ-बापसे स्वतन्त्र रहने लगे तब हमारा यह उत्तरदायित्व पत्नी और पुत्र- पुत्रियोंके प्रति होता है। अपनी आयके स्वामी हम अकेले ही नहीं होते बल्कि उसमें

१. देखिए खण्ड ६, पृष्ठ २७५, यहाँ गांधीजीने सीमंडसको वेतन दिये जानेका उल्लेख किया है।

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