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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मुझे अपने अनुभवसे तो यही मालूम हुआ है कि कोई भी प्रवृत्ति घनके अभाव- के कारण मन्द अथवा बन्द नहीं होती। इसका अर्थ यह नहीं है कि दुनियाकी तमाम प्रवृत्तियाँ धनके बिना चल सकती हैं। इसका यह अर्थ अवश्य है कि जहाँ किसी कामको चलानवाले लोग सच्चे होते हैं वहाँ घन अपने-आप आता चला आता है। इसके विरुद्ध मेरा यह अनुभव भी है कि किसी प्रवृत्तिके लिए बहुलतासे धन मिल जानेके बाद ही उस प्रवृत्तिकी अवनति आरम्भ हो जाती है। इसीलए मैंने अपने अनुभवके आधारपर यह निष्कर्ष निकाला है कि किसी सार्वजनिक संस्थाको कोई बड़ी धनराशि इकट्ठी करके उसके व्याजसे चलाना यदि पाप नहीं तो अनुचित अवश्य कहा जा सकता है। सार्वजनिक संस्थाका धन तो समाज ही है । सार्वजनिक संस्था जबतक समाज चाहे तभीतक चलाई जानी चाहिए। धनराशि इकट्ठी करके उसके व्याजसे काम चलानेवाली संस्था सार्वजनिक नहीं रहती, बल्कि स्वच्छन्द और निरंकुश हो जाती है। वह सार्वजनिक आलोचनाके अंकुशकी परवाह नहीं करती। यहाँ यह बताना आवश्यक नहीं है कि व्याजसे चलनेवाली धार्मिक और सामाजिक संस्थाओंमें प्रायः बहुत-सी बुराइयाँ आ जाती हैं। यह बात तो लगभग स्वयंसिद्ध ही है।

अब हम फिर अपने मूल विषयपर आयें । बारीक दलीले और नुक्ताचीनी करना वकीलों और अंग्रेजी पढ़े सुसंस्कृत लोगोंके ही हिस्सेमें नहीं आया है। मैंने दक्षिण आफ्रिकामें देखा कि बिना पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानी भी बड़ी बारीक दलीलें पेश कर सकते हैं। कुछ लोगोंने कहा कि पहले बनाया हुआ खूनी कानून रद हो जाने से नाट्यशालामें की गई प्रतिज्ञा तो पूरी हो गई है और जिन लोगोंके मनमें कमजोरी आ गई थी, उन्हें इस दलीलमें सार नजर भी आया । इस दलीलमें कोई तथ्य था ही नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता। फिर भी उन लोगोंपर इसका कोई असर नहीं हुआ जो उस कानूनके नहीं, बल्कि उसके तत्त्वके विरुद्ध खड़े हुए थे। ऐसा होनेपर भी सुरक्षाकी दृष्टिसे, अधिक जागृति उत्पन्न करनेके उद्देश्यसे और लोगोंमें कमजोरी आई है तो कितनी आई है, उसकी थाह ले लेनके विचारसे प्रतिज्ञाको दोहरानेकी आवश्यकता जान पड़ी। इसके लिए जगह-जगह सभाएँ की गईं जिनमें लोगोंको स्थिति समझाई गई और उनसे फिर प्रतिज्ञा भी कराई गई और हमें ऐसा दिखाई नहीं दिया कि लोगोंके उत्साहमें कोई कमी हुई है ।

जुलाईका महीना पास आ गया था'; इसलिए उसके पहले ट्रान्सवालकी राजधानी प्रिटोरियामें एक बृहद् सभा करनेका निश्चय किया गया। उसमें दूसरे शहरोंमें से भी प्रतिनिधि बुलाये गये । सभा खुली जगहमें प्रिटोरियाकी मस्जिदके चौगानमें की गई; सत्याग्रह आरम्भ होने के बाद सभाओं में इतने लोग आने लगे थे कि किसी भवनमें सभा करना सम्भव नहीं था। पूरे ट्रान्सवालमें हिन्दुस्तानियोंकी आबादी १३,००० से अधिक नहीं थी; किन्तु इसमें से १०,००० से ज्यादा लोग तो जोहानिसबर्ग और प्रिटोरियामें ही रहते थे। इस संख्याकी आबादीमें से पाँच-छ: हजार लोगोंका किसी सभामें आ

१. अंग्रेजी अनुवादमें यह वाक्य है : " जुलाई महीना समाप्त होनेपर आ गया था।” गांधीजीने प्रिटोरियाकी जिस सभाका वर्णन किया है वह ३१ जुलाई, १९०७ को हुई थी।

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