पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/१३

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सात

भोजन के रहना पसन्द करूँगा, किन्तु बिना चरखे के नहीं; और मैं कहूँगा कि तुम चरखे के इस महान् तात्पर्य को समझो” (पृष्ठ ४५०)।

खण्ड में संगृहीत अन्य महत्त्वपूर्ण सामग्री में सत्याग्रह आश्रम के उद्देश्यों को स्पष्ट करने वाला न्यास पत्र (पृष्ठ ४२७-२८) और सौ से भी अधिक वे विविध व्यक्तिगत पत्र हैं जिनसे हमें गांधी जी के मन की अन्तरंग झलक, समर्पण की भावना और पीड़ा का अनुमान होता है। उदाहरण के लिए उन्होंने श्री अन्सारी को लिखे पत्र में कहा : “इस समय जो आडम्बर और असत्य हमें घेरे है, उससे मैं बेहद त्रस्त हैं। इसलिए खादी और अस्पृश्यता के छोटे से काम तथा जो ढंग लोगों को ना पसन्द है उस ढंग से गोरक्षा के काम के अलावा किसी भी अन्य काम के लिए मुझे भूल ही जायें। मैं स्वीकार करता हूँ कि किसी भी अन्य समस्या को सफलतापूर्वक सुलझाने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ" (पृष्ठ २६६)। निराशा के स्वर के साथ दूसरी तरफ हमें दूसरों के प्रति उनके मन की चिन्ता, कोमलता और स्नेह की झांकी मिलती है। उदाहरण के लिए सतीशचन्द्र दासगुप्तको लिखे पत्र में उन्होंने कहा है : “मैं आपसे इस बात का वचन चाहता हूँ कि खादी का कुछ भी क्यों न हो, आप उसके बारे में क्षुब्ध नहीं होंगे। हम कौन होते हैं ? यदि वह अच्छी चीज है तो अवश्य ही ईश्वर स्वयं उसे समृद्ध बनायेगा। हम तो निमित्त-मात्र हैं। यदि हम अपने को शुद्ध रखते रहें और पवित्रता के लिए सदा द्वार खुले रखें तो हमें जो करना चाहिए था वह हम कर चुके। हमें अपनी लगाम उसके हाथ में दे देनी चाहिए, वह जैसा चलाये वैसे हमें चलना चाहिए" (पृष्ठ ४३९)।

गांधीजी ने धर्म के विषय में अनेक स्थानों पर बहत कुछ कहा है। उनका निम्नलिखित कथन अनेक दृष्टियों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जायेगा “मैं संसार के प्रेम का भूखा हूँ। अनेकान्तवाद के मूल में अहिंसा और सत्य दोनों हैं। . . . वह एक है, अनेक है; अणु से भी छोटा है और हिमालय से भी बड़ा है; समुद्र के एक बिन्दु में भी समा सकता है और सात समुद्र मिलकर भी उसे अपने भीतर समाविष्ट न कर सकें, इतना विशाल है वह! उसे जानने के लिए बुद्धि का उपयोग ही क्या हो सकता है? वह तो बुद्धि से परे है। . . . वह तो दयालु है, रहीम है, रहमान है। वह कोई मिट्टी का बना हुआ राजा तो है नहीं कि उसे अपनी सत्ता स्वीकार कराने के लिए सिपाही रखने पड़ें। वह तो हम लोगों को स्वतंत्रता देता है, फिर भी केवल अपनी दया के बल से हम लोगों का शासन करता है। लेकिन हम लोगों मे से यदि कोई उसका शासन नहीं मानता तो भी वह कहता है: 'खुशी से मेरा शासन न मानो;. मेरा सूर्य तो तुम्हें भी रोशनी देगा, मेरा मेघ तो तुम्हारे लिए भी पानी बरसायेगा। मुझे अपनी सत्ता चलाने के लिए तुम पर बलात्कार करने की कोई आवश्यकता नहीं" (पृष्ठ ४०२-३)।