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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ऐसा वक्त भी आया जब काछलियाको उनके गोरे लेनदारोंने अपने शिकंजे में कसा । बहुतसे हिन्दुस्तानियोंका व्यापार गोरे व्यापारियोंकी पेढ़ियोंपर निर्भर रहता है। ये पेढ़ियाँ लाखों रुपयोंका माल किसी तरहकी जमानत लिये बिना हिन्दुस्तानी व्यापारियोंको उधार देती हैं। हिन्दुस्तानी व्यापारी ऐसा विश्वास प्राप्त कर सके हैं, यह उनके व्यापारकी सामान्य प्रामाणिकताका एक अच्छा प्रमाण है। सेठ काछलियाको भी बहुत-सी अंग्रेज पेढ़ियोंने माल उधार दिया था। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूपसे सर- कारके उकसाने से इन व्यापारियोंने काछलियासे अपना पैसा तुरन्त माँगा। उन्होंने काछ- लियाको बुलाकर भी कहा -- "यदि आप इस लड़ाईमें से बाहर निकल आयें तो हमें अपना पैसा लेनेकी कोई जल्दी नहीं है। यदि आप लड़ाईसे न हटे तो हमें भय है कि सरकार आपको चाहे जब पकड़ लेगी । उस अवस्थामें हमारे पैसेका क्या होगा ? इसलिए यदि आप इस लड़ाईको न छोड़ सकें तो हमारा पैसा हमें तुरन्त लौटा दें। इस वीर पुरुषने उत्तर दिया: "लड़ाई तो मेरी निजी बात है। उसका मेरे व्यापारसे कोई सम्बन्ध नहीं है । इस लड़ाईमें मेरा धर्म, मेरे लोगोंका सम्मान और मेरा अपना सम्मान निहित है। आपने मुझे उधार माल दिया, इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ । किन्तु मैं इसको या अपने व्यापारको सर्वप्रथम नहीं मान सकता । आपके पैसे मेरे लिए सोनेकी मुहर हैं। मैं ता रहूँगा तबतक अपना तन बेचकर भी आपका पैसा दे सकता हूँ । मान लें कि मुझे कुछ हो गया तो भी आप यह समझ लें कि मेरा उधार खाता और माल आपके हाथोंमें है। आपने आजतक मेरा विश्वास किया है और मैं चाहता हूँ कि आप अब भी मेरा विश्वास करें। " यद्यपि यह तर्क बिलकुल उचित ही था और काछलियाकी दृढ़ता गोरे व्यापारियोंके लिए विश्वासका अतिरिक्त कारण थी फिर भी इस समय उसका प्रभाव उनके ऊपर नहीं हो सकता था। हम सोते आदमीको जगा सकते हैं, किन्तु जगता हुआ सोनेका बहाना करता हो, उसे नहीं जगाया जा सकता। इन गोरे व्यापारियोंकी भी यहीं दशा थी। उन्हें तो काछलियाको दबाना था; उनका पावना खतरेमें बिलकुल नहीं था ।

मेरे दफ्तरमें इन लेनदारोंकी बैठक हुई। मैंने उनसे स्पष्ट शब्दोंमें कहा कि वे लोग काछलियापर जो दबाव डाल रहे हैं वह व्यापार-नीति नहीं है, बल्कि राज- नीति है। यह नीति व्यापारियोंको शोभा नहीं देती। वे इससे और भी खीझ गये । सेठ काछलियाके मालकी और उगाहीकी सूची मेरे पास थी। मैंने यह सूची उनको दिखाई और उससे यह सिद्ध किया कि उनका पावना आना-पाईसे दिया जा सकता है। फिर यदि वे लोग इस व्यापारको किसी दूसरेको बेचना चाहें तो काछलिया अपना सब माल और उधारखाता किसी खरीददारको सौंपनेके लिए भी तैयार हैं । यदि वे ऐसा न करना चाहें तो वे दूकानमें मौजूद मालको असली मूल्यमें ले लें और फिर भी उनके पावनेमें कुछ कमी रहे तो उसकी भरपाई इस उगाहीमें से पसन्द करके उससे कर लें। पाठक समझ सकते हैं कि इस प्रस्तावको मान लेनेसे गोरे व्यापारि- योंकी कोई हानि नहीं हो सकती थी, और इस तरहसे मैंने संकटके समय बहुतसे

१. २२ जनवरी १९०९ को; देखिए खण्ड ९, पृष्ठ १५८ ॥