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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

व्यापारी यह देखकर दंग रह गये और सदाके लिए शान्त हो गये । गोरोंको सेठ काछलियाके मालमें से एक सालके भीतर ही अपने पावनेका पूरा रुपया, आना-पाईसे मिल गया। दक्षिण आफ्रिकामें दिवालेमें लेनदारोंको आना-पाईसे पूरा पावना मिला हो, मेरी जानकारीमें इसका यह पहला उदाहरण था। इससे लड़ाईके दिनोंमें ही गोरे व्यापारियोंमें काछलियाकी प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई और उन्हीं व्यापारियोंने लड़ाईके चलते हुए भी उनको जितना चाहिए उतना माल उधार देनेकी तैयारी दिखाई, किन्तु काछलियाका बल तो दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जाता था । वे इस लड़ाईका मर्म भी भली-भाँति समझ गये थे। बादमें तो कोई यह नहीं कह सकता था कि यह लड़ाई कितनी लम्बी चलेगी। इसलिए दिवालेके बाद हमने यह निश्चय किया था कि जब- तक लड़ाई चलती है तबतक तो किसी लम्बे व्यापारमें न पड़ें। उन्होंने यह भी निश्चय किया कि लड़ाईके दरम्यान उतना ही व्यापार करनेकी प्रवृत्ति रखी जाये जितनेसे एक गरीब आदमी अपना खर्च चला सकता है और बाकी व्यापार तबतक बन्द रखा जाये । इसलिए उन्होंने गोरोंकी दी हुई सुविधाका उपयोग ही नहीं किया ।

पाठक समझ ही लेंगे कि सेठ काछलियाके जीवनकी जिन घटनाओंका वर्णन मैंने यहाँ किया है, वे सब इस प्रकरणमें बताई हुई समितिकी बैठकके बाद ही घटित नहीं हुई थीं। मैंने उन्हें यहाँ इस खयालसे दिया है कि इन सबका वर्णन एकसाथ ही कर देना उचित होगा। तारीखवार देखें तो सत्याग्रहकी दूसरी लड़ाई १० सित- म्बर १९०८को आरम्भ हुई। सेठ काछलिया उसके बाद अध्यक्ष बनाये गये और उसके लगभग ५ मासके बाद दिवालिया घोषित किये गये ।

अब हम समितिकी बैठकके परिणामपर विचार करें। मैंने इस बैठकके बाद जन- रल स्मट्सको पत्र लिखा कि आपका नया विधेयक समझौतेके विरुद्ध जाता है। उन्होंने समझौते के बाद एक सप्ताह के भीतर ही एक भाषण दिया था। मैंने उनका ध्यान उस भाषणकी ओर भी खींचा। उन्होंने अपने भाषणमें इन शब्दोंका प्रयोग किया था: "ये (एशियाई) लोग मुझसे एशियाई कानूनको रद करनेकी बात कहते हैं । मैंने जबतक वे ऐच्छिक परवाने नहीं ले लेते तबतक इस कानूनको रद करनेसे इन- कार कर दिया है। " प्रशासक ऐसी किसी बातका उत्तर नहीं देते जिससे वे किसी उलझनमें फँस जायें और देते भी हैं तो वह गोल-मोल होता है। जनरल स्मट्स इस कलामें भली-भाँति कुशल हो गये थे। उन्हें चाहे जितने पत्र लिखे जाते और भाषणों में चाहे जितनी आलोचना की जाती, किन्तु जबतक उनकी इच्छा उत्तर देनेकी न होती तबतक उनसे उत्तर नहीं लिया जा सकता था। वे इस सामान्य शिष्टताका बन्धन भी नहीं मानते थे कि प्राप्त पत्रोंका उत्तर दिया ही जाना चाहिए। इसलिए मुझे अपने पत्रोंका उनकी ओरसे कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिल सका।

मैं अल्बर्ट कार्टराइटसे, जो हमारे बीच मध्यस्थ थे, मिला । उनको इससे बहुत आघात लगा और उन्होंने मुझसे कहा : "सच तो यह है कि मैं इस आदमीको समझ

१. पत्र उपलब्ध नहीं है।

२. यह भाषण रिचमंडमें दिया गया था। देखिए खण्ड ८, परिशिष्ट ८