पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/१९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६९
दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

खानेके लिए जो सरकारने दिया वही मिला, अर्थात् उन्हें खानेकी बहुत तकलीफ रही। ये सभी लोग डेक-यात्रीके रूपमें भेजे गये थे। फिर इस तरह निर्वासित किये गये लोगोंकी अपनी जमीनें और दूसरी सम्पत्ति होती थी, अपना कोई धन्धा, अपने आश्रित जन होते थे और कुछको तो कर्ज भी देना होता था । समर्थ होनेपर भी सब- कुछ गँवाने अर्थात् दिवालिया होनेके लिए अधिक लोग तैयार नहीं हो सकते थे ।

इसके बावजूद बहुतसे हिन्दुस्तानी तो हर तरह मजबूत रहे । बहुतसे कमजोर भी पड़े और जानबूझकर गिरफ्तार होनेसे बचे। इनमें से ज्यादातर लोग इतने कमजोर तो नहीं पड़े कि जो परवाने जला दिये थे उन्हें वे फिर ले लेते, किन्तु कुछने पर- वाने भयके कारण फिरसे ले लिये।

जो लोग मजबूतीसे टिके रहे उनकी संख्या इतनी कम अवश्य नहीं थी कि उसकी उपेक्षा की जा सके। उनकी वीरता असीम थी। मैं मानता हूँ कि उनमें से कुछ लोग ऐसे थे जो हँसते-हँसते फांसी के तख्तेपर भी चढ़ जाते। उन्होंने धन-सम्पत्तिकी चिन्ता तो छोड़ ही दी थी। किन्तु जो लोग हिन्दुस्तान भेज दिये गये थे, उनमें से बहुतसे तो गरीब और सीधे-सादे लोग ही थे और वे श्रद्धावश ही इस लड़ाईमें सम्मिलित हुए थे। उनपर इतना अत्याचार हमें असा लगा । यह समझना कठिन था कि इनको सहायता भी किस प्रकार दी जाये। हमारे पास पैसा तो थोड़ा ही था । यदि ऐसी लड़ाईमें पैसेकी सहायता देने लगें तो लड़ाई ही हार जायें; उसमें लालची आदमी न आ घुसे, इस भयसे पैसेका लोभ देकर तो उसमें एक भी आदमी दाखिल नहीं किया जाता था । परन्तु पीड़ितोंको सहानुभूतिके रूपमें सहायता देना तो धर्म था ।

मैंने अनुभवसे देखा है कि सहानुभूति, मधुर व्यवहार और स्नेहपूर्ण दृष्टिसे जो काम बन सकता है वह पैसेसे नहीं बन सकता। यदि किसीको पैसा मिले, पर सहानुभति न मिले तो वह साथ छोड़ देगा। इसके विपरीत जो मनुष्य प्रेमके वश होकर साथ देगा वह अनेक कष्ट सहनेके लिए तैयार रहेगा ।

इसलिए इन निर्वासितोंके लिए सहानुभूतिके रूपमें जो कुछ किया जा सकता वह सब करनेका निश्चय किया गया। हमने उन्हें आश्वासन दिया कि हिन्दुस्तानमें उनकी समुचित व्यवस्था की जायेगी । पाठकोंको जानना चाहिए कि इनमें से बहुतसे लोग तो मुक्त गिरमिटिये थे । उन्हें हिन्दुस्तानमें अपना कोई सगा सम्बन्धी नहीं मिल सकता था। फिर उनमें से कोई-कोई तो दक्षिण आफ्रिकामें ही पैदा हुए थे । उन सबके लिए हिन्दुस्तान विदेश जैसा ही था । ऐसे लोगोंको हिन्दुस्तानमें किनारेपर उतारकर भटकता छोड़ देना बहुत बड़ी निर्दयता ही होती। इसलिए हमने उन्हें विश्वास दिलाया कि हिन्दुस्तानमें उनकी समुचित व्यवस्था हो जायेगी ।

यह सब करनेपर भी जबतक उनके साथ कोई सहायक न होता तबतक उनको शान्ति नहीं मिल सकती थी। यह निर्वासितोंकी पहली टुकड़ी थी । जहाज छूटने में कुछ घंटेकी ही देर थी । चुनाव करनेके लिए वक्त नहीं था । मेरी निगाह अपने साथियोंमें भाई पी० के० नायडूपर पड़ी। मैंने उनसे पूछा :