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दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह इतिहास

किन्तु इसका प्रभाव सत्याग्रही 'सेना पर पड़े बिना न रहा। अब जो बचे वे खास लड़नेवाले लोग ही थे । "हमें सरकार हिन्दुस्तान भेज दे तो". इस भयको सभी लोग मनसे दूर नहीं कर सके ।

सरकारने कौमके उत्साहको तोड़नेके लिए एक यही कदम नहीं उठाया था । मैं पिछले प्रकरणमें बता चुका हूँ कि सरकारने सत्याग्रही कैदियोंको कष्ट देनेमें कोई कमी नहीं रखी थी। वह उनसे गिट्टी तोड़नेका काम भी कराती थी। उसकी ज्याद- तियाँ इतनी ही नहीं थीं। वह पहले सब सत्याग्रही कैदियोंको साथ-साथ रखती थी; किन्तु अब उसने उनको अलग-अलग रखनेकी नीति ग्रहण की और उन्हें सभी जेलोंमें बहुत कष्ट दिया। ट्रान्सवालमें जाड़ेका मौसम बहुत कठिन होता है। सर्दी इतनी ज्यादा होती है कि सुबहके काम करते वक्त हाथ ठिठुर कर रह जाते हैं। इसलिए कैदियोंके लिए जाड़ेका मौसम बहुत कठिन सिद्ध हुआ। ऐसी स्थितिमें कुछ कैदी एक छोटी जेलमें रखे गये जहाँ उनसे मिलनेके लिए कोई जा ही नहीं सकता था । इस टुकड़ीमें स्वामी नागप्पन नामका एक युवक सत्याग्रही था। उसने जेलके नियमोंका पालन किया। उसे जो भी काम दिया गया उसने वह पूरा किया। वह सुबह बहुत जल्दी सड़कपर मिट्टी डालनेके लिए ले जाया जाता था। इससे उसे तेज डबल निमोनिया हो गया, और अन्तमें रिहा कर दिये जानेपर ७ जुलाई, १९०९को उसका प्राणान्त हो गया। नागप्पनके साथियोंका कहना है कि उसको अन्तिम क्षणतक आन्दोलनका ही खयाल रहा। उसको जेल जानेका पश्चात्ताप नहीं हुआ। उसे देशके लिए लड़ते हुए जो मृत्यु मिली उसका आलिंगन उसने मित्रकी भाँति किया। हमारे मान- दण्डसे यह नागप्पन अशिक्षित था। उसने अंग्रेजी और जुलू आदि भाषाएँ बोलना अभ्याससे सीख लिया था। शायद वह टूटी-फूटी अंग्रेजी लिख भी लेता हो; किन्तु हम उसे अवश्य ही पढ़े-लिखोंकी पंक्तिमें नहीं रख सकते। फिर भी नागप्पनके धैर्य, शान्ति, देशभक्ति और प्राणान्ततक टिकनेवाली दृढ़ताका विचार करें तो क्या उसमें और कुछ चाहने योग्य गुण रह जाता है ? ट्रान्सवालकी लड़ाई बड़े-बड़े विद्वानोंके सम्मिलित न होनेपर भी चलाई जा सकी; किन्तु यदि उसमें नागप्पन-जैसे सैनिक न मिले होते तो क्या वह चलाई जा सकती थी ?

जैसे नागप्पनकी मृत्यु जेलके कष्टोंसे हुई वैसे ही नारायण स्वामीकी मृत्यु (१६ अक्टूबर १९१०को) निर्वासनके कारण हुई । निर्वासनके कष्ट उसके लिए काल- रूप सिद्ध हुए। कौम इन घटनाओं के कारण हारी नहीं; किन्तु कमजोर लोग उसमें से खिसक गये । कमजोर लोग भी इस लड़ाईमें अपना योग यथाशक्ति दे चुके थे; अतः उन्हें कमजोर जानकर उनका तिरस्कार नहीं करना चाहिए। ऐसी रीति हो गई है कि आगे बढ़नेवाले आदमी पीछे रहनेवाले आदमियोंका तिरस्कार करते हैं और यह समझते हैं कि हम वीर हैं। किन्तु वास्तविकता प्रायः इससे उलटी होती है। यदि पचास रुपयेवाला आदमी पच्चीस रुपया देकर बैठ जाये और पाँच रुपयेवाला

१. देखिए खण्ड ९, पृष्ठ २९८ ।

२. देखिए खण्ड १०, पृष्ठ ३६०।