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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हैं और इसका नतीजा यह होता है कि हम अपनी लापरवाहीसे जिस मैलेको छोड़ देते हैं उसीपर मक्खियाँ बैठकर हमारे नहाये-धोये शरीरोंपर स्पर्श करती हैं। एक छोटी-सी कुदाली हमें बहुत-सी गन्दगीसे बचा सकती है । चलनेके रास्तेमें मैला डालना, थूकना और नाक साफ करना ईश्वर और मनुष्यके प्रति पाप है। इसमें दयाका अभाव होता है। यदि कोई मनुष्य जंगलमें रहे और वहाँ भी अपने मैलेको न ढके तो वह भी दण्डनीय है ।

हमारा काम सत्याग्रही कुटुम्बोंको उद्योगरत रखना, उनका खर्च कम करना और अन्तमें उन्हें स्वावलम्बी बनाना था। यदि हम ऐसा कर पाते तो ट्रान्सवाल सरकारसे चाहे जबतक लड़ सकते थे। जूतोंका खर्च तो था ही । बन्द जूते गर्म जलवायुमें नुकसान ही पहुँचाते हैं, क्योंकि उनसे सारा पसीना पैरोंमें समा जाता है और उन्हें कमजोर बना देता है। हमारे देशकी तरह ट्रान्सवालकी जलवायुमें भी मोजोंकी जरूरत तो थी ही नहीं। हां, पैरोंको काँटों और कंकड़-पत्थरों आदिसे बचानेके लिए किसी चीजकी जरूरत है, यह हम जरूर मानते थे। इसलिए हमने 'कंटक-रखनी' अथवा चप्पल बनानेका धन्धा सीखनेका निश्चय किया। दक्षिण आफ्रिकामे पाइन टाउनके पास मेरि- यन हिलमें ट्रेपिस्ट कहे जानेवाले रोमन कैथोलिक पादरियोंका मठ है। उसमें ऐसे उद्योग चलते हैं। ये पादरी जर्मन हैं। श्री कैलनबैक उस मठमें जाकर चप्पलें बनाना सीख आये। फिर उन्होंने यह काम मुझे सिखाया और मैंने दूसरे साथियोंको। इस तरह कुछ युवक चप्पलें बनाना सीख गये और हम इन चप्पलोंको मित्रजनोंमें बेचने भी लगे। मुझे यह कहनेकी जरूरत न होनी चाहिए कि इस कलामें मेरे कुछ शिष्य मुझसे भी आगे बढ़ गये। हमने दूसरा काम खातिगीरीका शुरू किया था। चूंकि हम एक गाँव-सा बनाकर रहते थे, अतः उसमें हमें पट्टेसे लेकर पेटीतक छोटी-बड़ी बहुत-सी चीजोंकी जरूरत होती थी। उन्हें हम अपने हाथसे ही बनाते थे। ऊपर बताये गये परोपकारी मिस्त्रियोंने कुछ महीनोंतक हमें मदद दी ही थी । श्री कैलनबकने इस कार्यकी व्यवस्था अपने हाथमें रखी थी। उनकी सुघड़ता और सावधानीका अनुभव मुझे प्रतिक्षण होता था।

जवानों, लड़कों और लड़कियोंके लिए शालाकी आवश्यकता तो थी ही । हमें यह काम सबसे कठिन लगा और वह अन्ततक पूर्णताको प्राप्त नहीं हुआ। शिक्षणका भार मुख्यतः श्री कैलनबैकके और मेरे ऊपर था ।' शाला दोपहरको ही चलाई जा सकती थी। उस समय हम दोनों सुबहकी मेहनतसे बहुत थके होते थे। विद्यार्थी भी थके होते, इसलिए बहुधा वे नींदमें झोंके खाते और हम भी। हम अपनी आँखों- पर पानी छिड़कर और बच्चोंके साथ खेल-कूदकर आलस भगाते; किन्तु हमारे ये प्रयत्न कई बार व्यर्थ जाते । शरीरको जितना आराम चाहिए उतना वह जरूर लेता है। मैंने यह तो केवल एक छोटेसे-छोटा विघ्न बताया, क्योंकि इस तरह

१. देखिए खण्ड १, पृष्ठ १८२-९।

२. इसकी स्थापना जून १९१० में की गई। देखिए खण्ड १०, पृष्ठ ३००-१ ।

३. खण्ड ११, पृष्ठ २४७ तथा आत्मकथा, भाग ४, अध्याय ३२ और ३३ भी देयखिए।