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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

भी शहर में जाकर खाने के लिए पैसा खर्च न करे । यदि हम ऐसे कड़े नियम न रखते तो जिस पैसेको बचाने के लिए हमने जंगलमें रहना पसन्द किया था वह पैसा रेल- भाड़े में और बाजारके नाश्ते में ही उड़ जाता। घरका नाश्ता भी सादा ही होता था । अर्थात् घरमें पिसे हुए बिना छने आटेकी घरकी बनी रोटी, उसपर घरमें बना मूंग- फलोका मक्खन और घरमें बना नारंगीके छिलकेका मुरब्बा । आटा पीसनेके लिए लोहेकी बनी हाथ-चक्की ले ली थी । मूंगफलीको भूनकर पीसनेसे मक्खन बन जाता था और वह दूधके बने मक्खनसे चार गुना सस्ता पड़ता था। नारंगियाँ तो फार्ममें ही बहुत होती थीं। हम फार्ममें गायका दूध तो शायद ही कभी लेते थे और प्रायः डिब्बे- का दूध काममें लाते थे ।

अब हम फिर यात्राकी बातपर आते हैं। जिसे जोहानिसबर्ग जानेका चाव होता वह सप्ताह में एक या दो बार पैदल जाता और उसी दिन वापस आ जाता । मैं पहले बता चुका हूँ कि यह यात्रा २१ मीलकी थी। पैदल जाने-आनेके इस एक नियमसे ही सैकड़ों रुपयोंकी बचत हुई और पैदल आने जानेवालोंका भी बहुत लाभ हुआ। कुछ लोगोंको पैदल चलनेका नया अभ्यास हो गया । नियम यह था कि इस तरह जानेवाला रातमें दो बजे जग जाये और ढाई बजे रवाना हो जाये । सभी लोग छः से लेकर सात घंटेके भीतर जोहानिसबर्ग पहुँच सकते थे। तेजसे-तेज चलनेवालोंको इसमें चार घंटे अठारह मिनिट लगते थे ।

पाठक यह न मानें कि ये नियम आश्रमके सदस्योंके लिए भार-रूप थे। सभी उनका पालन प्रेमपूर्वक करते थे। मैं जबर्दस्ती तो वहाँ एक भी आदमीको नहीं रख सकता था। युवक आश्रमका सब काम हँसते-हँसते और खेलते-कूदते करते । शहर भेजे जाते तो वह काम भी इसी तरह करते । शरीरश्रमका काम करते हुए उनको ऊधम मचानेसे रोकना मुश्किल होता । हमने यह नियम रखा था कि उन सबसे उतना ही काम लिया जाये जितना उन्हें खुश रखकर लिया जा सके। मुझे ऐसा नहीं लगा कि इससे काममें कुछ भी कमी हुई हो ।

मैलेकी व्यवस्थाकी बात समझने योग्य है । फार्ममें इतने लोग रहते थे फिर भी कहीं कूड़ा-करकट, गन्दगी या जूठन दिखाई नहीं देती थी। जमीनमें खाइयाँ खोद रखी थी; सारा कूड़ा उन्हीं में दबाया जाता था। कोई भी रास्ते में पानी नहीं फैलाता था। सारा पानी एक बरतन में इकट्ठा कर लिया जाता और पेड़ोंमें दे दिया जाता था। जूठनकी और साग-सब्जियोंके कतरेकी खाद बन जाती थी। रहनेके मकानोंके पास ही जमीनके चौरस टुकड़ेपर एक डेढ़ फुट गहरा खड्डा खोद लिया गया था। सब मैला उसीमें डाला जाता था और उसके ऊपर खुदी मिट्टी फैला दी जाती थी जिससे तनिक भी दुर्गन्ध न उठे। इससे उसपर मक्खियाँ नहीं भिन-भिनाती थीं और नीचे मैला दबा है, किसीको इसका खयाल भी नहीं होता था। साथ ही उससे फार्मके लिए अमूल्य खाद भी मिल जाती थी । यदि हम मैलेका सदुपयोग करें तो लाखों रुपयेकी खाद बन जाये और हम बहुत-से रोगोंसे मुक्त रहें। हम अपनी मल-मूत्र विसर्जन सम्बन्धी बुरी आदतोंके कारण पवित्र नदियोंके किनारोंको गन्दा कर देते हैं, मक्खियाँ पैदा करते

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