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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
अध्याय ३५
टॉल्स्टॉय फार्म. ३

में इस प्रकरणमें टॉल्स्टॉय फार्मके कुछ संस्मरण दूंगा; और इसलिए वे असम्बद्ध लगेंगे। पाठक मुझे इसके लिए क्षमा करें।

मुझे पढ़ाने के लिए जैसा छात्र वर्ग मिला था वैसा किसी दूसरे शिक्षकको शायद ही कभी मिला हो। इस वर्गमे सात वर्षके लड़कों और लड़कियोंसे लेकर २० वर्षके लड़कों और १२-१३ वर्षकी लड़कियोंतक का समावेश था। कुछ लड़के तो ऐसे थे कि जो जंगली कहे जा सकते थे। वे ऊधम भी बहुत करते थे।

मैं इस समुदायको क्या सिखाता ? वह उन सबके स्वभावके अनुकूल कैसे होता ? फिर उन सबसे किस भाषामें बातचीत करता ? तमिल और तेलुगु बच्चे या तो अपनी मातृभाषा समझते थे या अंग्रेजी । वे थोड़ी डच भाषा भी जानते थे। मुझे तो अंग्रेजी- से ही काम लेना होता था। मैंने इनके दो विभाग कर दिये थे, गुजरातियोंसे गुजरातीमें बोलता और दूसरोंसे अंग्रेजीमें। शिक्षण-क्रम यह रखा था कि मुख्यतः कोई मनोरंजक कथा-वार्ता मौखिक या पढ़कर सुनाता । उद्देश्य इतना ही था कि वे साथ-साथ बैठना सीख जायें और उनमें मित्र-भाव या सेवा भाव आ जाये। मैं उन्हें इतिहास, भूगोलका सामान्य ज्ञान देता, कुछ लिखनेका अभ्यास कराता और कुछको अंकगणित भी सिखाता। मैं इस तरह गाड़ी चलाता था। प्रार्थनामें गानेके लिए कुछ भजन सिखाता था; मैं उसमें सम्मिलित होनेके लिए तमिल बच्चोंको भी फुसलाता ।

लड़के और लड़कियाँ स्वतन्त्रतासे साथ-साथ उठते बैठते थे। टॉल्स्टॉय फार्ममें मेरा यह सहशिक्षाका प्रयोग अधिकसे-अधिक भयरहित था। मैं बच्चोंको जितनी स्वत- न्त्रता वहाँ दे सका या सिखा सका उन्हें उतनी स्वतन्त्रता देने या सिखानेका साहस मुझे आज नहीं होता । मुझे प्रायः ऐसा लगता है कि उस समय मेरा मन आजकी अपेक्षा अधिक निर्दोष था। इसका कारण मेरा अज्ञान हो सकता है। इसके बाद तो मुझे धोखा हुआ है और कटु अनुभव हुए हैं। जिन्हें मैं निर्दोष समझता था वे दोषयुक्त निकले हैं। गहराईसे देखनेपर मुझे अपने भीतर भी विकार दिखाई दिये हैं। इससे मेरा मन भीरु हो गया है ।

मुझे अपने इस प्रयोगपर कोई पश्चात्ताप नहीं है। मेरी आत्मा यह साक्षी देती है कि इस प्रयोगके कारण कोई भी खराबी नहीं हुई। किन्तु जैसे दूधका जला छाछ- को भी फूंक-फूंककर पीता है, ऐसा ही मेरे सम्बन्धमें भी माना जा सकता है।

मनुष्य श्रद्धा अथवा साहस किसी दूसरेसे उधार नहीं ले सकता । 'संशयात्मा विनश्यति'। टॉल्स्टॉय फार्ममें मेरी श्रद्धा और साहस पराकाष्ठाको पहुँच गये थे। मैं ईश्वरसे प्रार्थना कर रहा हूँ कि वह मुझमें ऐसी श्रद्धा और साहस फिर दे । किन्तु वह सुने तब न ! उसके सामने तो मेरे जैसे असंख्य भिखारी हैं। मुझे इतना विश्वास अवश्य है कि उसके सम्मुख जैसे भिखारी असंख्य हैं वैसे ही उसके कान भी असंख्य हैं । अतः उसपर मेरी पूर्ण श्रद्धा है। मैं यह भी जानता हूँ कि जब मैं इस योग्य हो जाऊँगा तब वह मेरी प्रार्थना सुनेगा।