पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/२६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पाठकोंको जानना चाहिए कि ये गोलियां चलाने-जैसे काम गैरकानूनी ही थे ।

सरकारका खान-मजदूरोंसे व्यवहार देखने में कानूनी था। उन लोगोंको हड़ताल करने- के जुर्ममें गिरफ्तार नहीं किया गया था; बल्कि ट्रान्सवालकी सीमामें अवैध रूपसे प्रवेश करनेके जुर्ममें गिरफ्तार किया गया था। किन्तु उत्तर तटपर और दक्षिण तटपर हड़ताल करना ही गुनाह माना गया था; किन्तु कानूनकी रूसे नहीं, बल्कि सत्ताके वलसे । अन्त में तो सत्ता ही कानून बन जाती है। अंग्रेजी में एक कानूनी कहावत है, 'राजा कभी कोई काम अनुचित नहीं करता।" जो बात सत्ताधारियोंके अनुकूल हो, अन्ततः वही कानून होती है। यह दोष सार्वभौम है। असलम तो इस तरह कानूनकी उपेक्षा करना सदा दोष नहीं होता। कभी-कभी तो सामान्य कानूनपर कायम रहना ही दोष बन जाता है। यदि सत्ता लोकहित करती हो, और उसपर लगा हुआ अंकुश उसके नाशका कारण बनता हो, तो उस अंकुशका अनादर करना धर्म्य और विवेक- संगत होता है। किन्तु ऐसे अवसर कदाचित् आ सकते हैं। जहाँ सत्ता ज्यादातर निरंकुशताका व्यवहार करती है वहाँ वह लोकोपकारी हो ही नहीं सकती। दक्षिण आफ्रिकामें इस मामले में सत्ताके निरंकुश होनेका कोई कारण नहीं था। लोगोंका तो हड़ताल करनेका अधिकार अनादि है। हड़तालियोंको उपद्रव तो नहीं करना था और सरकारके पास यह माननेके पर्याप्त कारण थे। हड़तालका उग्रसे-उग्र परिणाम केवल यही होता कि तीन पौंडी कर रद हो जाता । शान्तिप्रिय लोगोंके विरुद्ध शान्तिपूर्ण उपाय काममें लेना ही उचित हो सकता है। फिर वहाँ सत्ता लोकोपकारी नहीं थी। वहाँ उसका अस्तित्व ही गोरोंके उपकारके लिए था । वह सामान्यतः हिन्दुस्तानियोंके विरुद्ध थी। इसलिए ऐसी एकांगी सत्ताकी निरंकुशता किसी भी तरह उचित और क्षन्तव्य नहीं मानी जा सकती थी। ।

इसलिए मेरी बुद्धिसे तो वहाँ सत्ताका विशुद्ध दुरुपयोग ही हुआ था। जिस कार्यको सिद्धिके लिए सत्ताका ऐसा दुरुपयोग किया जाता हो वह कार्य कभी सिद्ध नहीं होता। कभी-कभी उसमें क्षणिक सिद्धि मिलती अवश्य दिखाई देती है, किन्तु वह स्थायों कभी नहीं होती। दक्षिण आफ्रिकामें तो गोलियां चलने के बाद छः महीने के भीतर ही जिस तीन पौंडी करकी रक्षाके लिए यह अत्याचार किया गया था वह रद कर दिया गया था। इस तरह कई बार दुःख सुखका निमित्त हो जाता है। हिन्दुस्तानियोंके इस दुःखकी पुकार सर्वत्र सुनी गई। मैं तो यह मानता हूँ कि जैसे एक यन्त्रमें प्रत्येक वस्तुका अपना स्थान होता है वैसे ही हरएक लड़ाईमें प्रत्येक घटनाका स्थान होता है; और जैसे जंग और धूल आदि यन्त्रकी गतिको रोकते हैं वैसे ही कुछ बातें लड़ाईकी गतिको रोकती हैं। उसमें हम तो निमित्त मात्र ही होते हैं, इसलिए हम हमेशा यह नहीं जान पाते कि क्या चीज हमारे अनुकूल है और क्या हमारे प्रतिकूल । इसलिए हमें तो केवल अपने साधनको जाननेका ही अधिकार है । यदि साधन पवित्र हो तो हम परिणामके सम्बन्धमें निर्भय और निश्चिन्त रह सकते हैं।

मैंने इस लड़ाईमें यह देखा कि सैनिकोंके कष्ट ज्यों-ज्यों बढ़ते गये त्यों-त्यों कष्टोंका अन्त निकट आता गया। उसमें ज्यों-ज्यों दुःखी लोगोंकी निर्दोषता स्पष्ट