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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

किया है। वे यह नहीं जानते कि देशभक्ति नफा-नुकसानका हिसाब बैठाना नहीं है। इसलिए उन्होंने गलत निष्कर्ष निकाले हैं और इसीलिए उन्होंने सरकारी स्कूलों और कालेजोंको अधिक पसन्द किया है। इसमें उनका कुछ भी दोष नहीं है। हमारे आसपास आज जो कुछ भी है वह व्यापार और नफेकी दृष्टिसे ही देखा जा रहा है। तब लड़के और लड़कियोंसे आसपासके वायुमण्डलसे ऊपर उठ जानेकी आशा रखना एक बहुत बड़ी बात है ।

इतना ही नहीं। राष्ट्रीय शालाओंके शिक्षकगण भी त्रुटिसे अछूते नहीं हैं। उनमें से सबके सब आत्मत्यागी नहीं हैं। वे क्षुद्र दलबन्दी या प्रपंचोंकी भावनासे मुक्त नहीं हैं। उनमें से सबके सब देशभक्त हों, सो भी नहीं है। जैसा ऊपर कहा जा चुका है इसमें उनका कोई दोष नहीं है। हम सब परिस्थितिके दास हैं। हमें अनवरत दबावमें- रहकर नौकरोंकी तरह काम करनेकी शिक्षा मिली है; हमारी सूझ-बूझका नाश हो चुका है; और इसलिए हम आत्मत्याग करनेके आह्वानका समुचित उत्तर दे पाते; न अपने खुदके या अपने कुटुम्बके हितोंसे देशके हितको ऊँचा मानने और उनके प्रति प्रेम करनेकी आह्वानकी कद्र कर पाते हैं और न बिना पुरस्कारकी आशाके सेवाभाव अपनानेको ही तैयार हैं।

इसलिए यह बहुत आसानी से समझा जा सकता है कि वर्तमान शिथिलता किस कारण है, लेकिन जिस प्रकार मूल कार्यक्रमके दूसरे विषयों में मेरी श्रद्धा अटल है उसी प्रकार राष्ट्रीय शालाओं में भी मेरी श्रद्धा अटल है । मैं राष्ट्रके वातावरणमें शिथिलताका आ जाना स्वीकार करता हूँ और इस स्थितिको स्वीकार करनेवाले कांग्रेसके प्रस्तावोंका अनुमोदन भी करता हूँ। लेकिन इससे मैं निराश नहीं होता और दूसरोंको भी निराश न होनेके लिए कहता हूँ। इन राष्ट्रीय शालाओंमें छात्रों की संख्या घटती जा रही है; फिर भी वे मेरे लिए तो मरुस्थलमें यत्र-तत्र बिखरे हुए हरित उद्यानोंके समान ही है। जिस प्रकार ये संस्थाएँ आज हमें अवैतनिक या थोड़ा वेतन लेकर चुपचाप काम करनवाले सेवक तैयार करके देती हैं उसी प्रकार भविष्यका राष्ट्र भी इन्हीं में से ही तैयार होगा । आप कहीं भी जायें आपको ऐसे असहयोगी युवक और युवतियाँ मिलेंगे जो मातृभूमिकी सेवा में अपनी तमाम शक्ति लगा रहे हैं और बदलेमें कुछ भी आशा नहीं रखते।

इसलिए मुझे उन आलोचक सज्जनोंकी सलाहपर कोई ध्यान नहीं देना चाहिए जो गुजरात महाविद्यालयको लड़कोंकी संख्या घट जानेके कारण बन्द करनेकी बात सुझाते हैं। यदि लोग उसकी मदद करें, अथवा लोग मदद करें या न करें, लेकिन यदि उसके शिक्षकगण दृढ़ बने रहें तो महाविद्यालयमें जबतक एक भी सच्चा लड़का या लड़की उसके आदर्शके अनुसार अपनी पढ़ाई खतम करना चाहे तबतक तो विद्या- लय चलाया ही जाना चाहिए। उस संस्थाके चलानेकी शर्त अनुकूल परिस्थितियोंका रहना नहीं था। जो बात राष्ट्रीय सेवकोंके बारेमें है वही राष्ट्रीय संस्थाओंके बारेमें भी है। वायुमण्डल अनुकूल हो या प्रतिकूल, कार्यक्रमको चलाना ही चाहिए ।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, १०-१२-१९२५