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६२. पत्र: घनश्यामदास बिड़लाको

वर्धा

पौष शुक्ल १ [१६ दिसम्बर, १९२५]

भाई घनश्यामदासजी,

आपका खत मोला है। स्वराज्य दलके बारेमें मीलुंगा तब बातें करूंगा। आपके ख्यालोंका में परिवर्तन नहिं चाहता हुं। क्योंकि उन ख्यालोंका समर्थन करता हुआ मैं मेरी स्थितिका समर्थन करना चाहता हूं। मेरी हालतमें में दूसरा कुछ नहि कर सकता - केवल धर्मलाभ यानि देशलाभके लीये ।

आप जो कुछ भेजना चाहते हैं जमनालालजीके वहां अथवा अहमदाबादमें बरोड़ा बैंक भरवा दें। कलकत्ते या तो दिल्ली में मुझको कुछ कष्ट होगा। परंतु यदि आप कलकत्ते या दिल्लीमें किसी बैंकमें रखना पसंद करें तो मेरे नाम से रखवाकर उस बँककी क्रेडिट नोट भेज दें। जैसा आपको सुभीता हो ऐसा करें।

स्वामी आनन्द लीखते हैं कि न० जी० यं० इ० इ०की जो प्रति आपके कहनेसे मुफत भेजी जाती है उसका हिसाब अबतक नहिं मीला है । रु० २९९-१५-० है । आप भेज देंगे? इस वर्ष समाप्त होनेके पहले चाहता है।

अपका,

मोहनदास गांधी

मूल पत्र (सी० डब्ल्यू० ६११७) से ।

सौजन्य : घनश्यामदास बिड़ला

६३. एक विद्याआपकार्थी के प्रश्न

अमेरिका से स्नातकोत्तर श्रेणीका एक विद्यार्थी लिखता है :

में उनमें से हूँ जो इस बातमें बहुत दिलचस्पी रखते हैं। हिन्दुस्तानकी गरीबीको दूर करने के लिए अन्य उपायोंके अतिरिक्त हिन्दुस्तान में उपलब्ध साधनोंका योग्य उपयोग किया जाये। इस देशमें रहते हुए मुझे यह छठा साल है। मेरा खास विषय लकड़ियोंसे सम्बन्धित रसायन शास्त्र है। यदि मुझे हिन्दुस्तान के औद्योगिक विकासके महत्वके सम्बन्धमें अतिशय श्रद्धा न होती तो में डाक्टरी पढ़ने लगता या मैंने सरकारी नौकरी कर ली होती। • • • क्या आप मेरा, कागज बनानेका या ऐसा ही कोई अन्य उद्योग प्रारम्भ करनेकी कोशिश करना पसन्द करेंगे ? यदि हिन्दुस्तानके लिए विवेकमूलक, दया भावपर