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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रक्षा उन्हें अपनी माँ-बहन समझ कर की है ? जो अपनेको सत्य मालूम हुआ है उसका पालन कितनोंने जातिका भय छोड़कर किया है ? विधवा किसके पास जाकर अपनी गुहार सुनाये ? मैं विधवाओंकी तरफसे वकालत भी किसके आगे जाकर करूँ ? मैं किसको प्रोत्साहन दूँ ? कितनी बाल-विधवाएँ 'नवजीवन' पढ़ती है ? जो पढ़ती भी हैं उनमें से कितनी अपने विचारोंपर अमल करती हैं । फिर भी प्रसंग आनेपर में 'नवजीवन' द्वारा विधवाओंकी दुःखगाथा सुनाया करता हूँ। आगे भी समय आनेपर सुनाता रहूँगा। लेकिन इस दरम्यान में यह दृढ़तापूर्वक कहना और समझाना चाहता हूँ कि जिसके यहाँ बाल-विधवा है उसका धर्म है कि वह उसका विवाह कर दे ।

जातियोंकी दूसरी बुराइयोंका भी लेखकने यथोचित वर्णन किया है। लेकिन जहाँ आसमान ही फट पड़ा हो वहाँ उसमें पैबन्द क्या लगायें ? इसमें सन्देह नहीं कि मृत्युके बाद भोज देना एक जंगली रिवाज है । विवाहके अवसरपर जो भोज दिया जाता है वह भी कुछ कम जंगलीपनकी बात नहीं है। विवाह एक धार्मिक संस्कार है। उसके पीछे इतना खर्च क्यों किया जाये, इतना आडम्बर क्यों करें ? लेकिन दुनियाके दूसरे हिस्सोंमें भी विवाह में कम-ज्यादा खर्च अब भी किया जाता है । इसलिए हम चाहें तो उसे कम असभ्यतापूर्ण कहें, लेकिन मृत्युके बाद भोज देना तो हिन्दुओंमें ही देखा जाता है । ऐसे बहुत-से सुधारोंकी आवश्यकता स्पष्ट है। लेकिन समाजका जीवन विचारमय, स्वतन्त्र और नीतिमय बन जानेपर सब सुधार एक साथ ही हो जायेंगे। जबतक हम लोग विचारशून्य और पराधीन रहेंगे, तबतक एक तार खींचनेसे तेरह टूटेंगे ।

लेखकका आखिरी सन्ताप विदेशी कपड़े न जलाने और उसकी दुकानोंपर धरना न देनेके सम्बन्ध में है। यदि लोग मुझे इस बातका यकीन दिलायें कि वे अपने विदेशी कपड़ोंकी ही होली करेंगे, दूसरोंके कपड़ों की नहीं और दूसरोंकी टोपियाँ उतार- उतार कर 'होली' में न फेंकेंगे तो मैं आज ही विदेशी कपड़ेकी होलीका प्रचार आरम्भ कर दूं । इस होलीके औचित्यके सम्बन्धमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं है; लेकिन मुझे लोगों की हिंसाका भय है । जिस वस्तुकी उत्पत्ति शुद्ध प्रेमसे होती है उसका भी जब खासा दुरुपयोग किया जाता है तब यह समझना चाहिए कि उसको सार्वजनिक बनाने का समय अभी आया नहीं है । और जब मैंने बम्बई में यह देखा कि जो लोग स्वयं विदेशी कपड़े पहनते हैं वे भी दूसरोंके विदेशी कपड़े छीन छीनकर उनकी होली करनेके लिए तैयार हैं, तब मैंने उस शस्त्रको वापस ले लिया । इस समय फूट, पाखण्ड और अन्य दूषित बातोंकी गन्दगी सतहपर आ गई है। ऐसे समय में अहिंसाके प्रयोगोंको कुछ हलका कर देना ही आवश्यक है। इसीलिए खादी तैयार करने, चरखा चलाने और खादी बेचनेका महान् अहिंसात्मक प्रयोग, जो इस समय निःसंकोच किया जा सकता है, किया जा रहा है । जिन्हें अहिंसासे हिन्दुस्तानका स्वराज्य- - धर्मराज्य - प्राप्त करना है वे तो उसे परम धर्म मान कर ही उसपर आचरण करेंगे; ऐसी आशा है ।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २७-१२-१९२५