पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/३७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३५१
एक प्रेमीका सन्ताप

माने कि उसे अपनाकर रूस, इटली और अन्य यूरोपीय देशों में लोग सुखी या स्वतन्त्र हो गये हैं। उनके सिरपर तलवार तो लटकती ही रहती है । जो लोग हिन्दुस्तानके किसानों की सेवा करना चाहते हैं उन्हें तो अहिंसा के मार्गपर अचल श्रद्धा रखकर ही कार्य करना होगा। अन्य सब लोग तो केवल अपने अभिमानको ही तृप्त कर रहे हैं। उनकी कल्पनामें किसानोंका समावेश ही नहीं हो सकता अथवा कहना चाहिए कि वे उनकी हालत जानते ही नहीं हैं ।

लेखकने जो कुछ कहा है वह 'चौदशिया' बनिये हों या 'पाटीदार' - सभीपर लागू होता है। इसमें सन्देह नहीं कि वे सब गाँव के अनजान और भोले किसानों को लूटते हैं। उन्हें स्वार्थके सिवा और किसी भी बातका खयाल नहीं होता। लेकिन वहाँ भी उपाय केवल उन्हें नीति सिखाना ही है । दुःखी मनुष्यके लिए सत्याग्रह और असहयोगकी शिक्षाकी आवश्यकता है। अपनी सहमतिके बिना गुलाम गुलाम बन ही नहीं सकता। यदि लोग शरीरबलसे विरोध करना सीख सकते हैं तो क्या वे आत्म- बलसे विरोध करना नहीं सीख सकते। हम आत्मारहित जड़-पदार्थ शरीरका उपयोग करना सीख सकते हैं; तो क्या शरीरके स्वामीको अर्थात् आत्माकी शक्तिको हम नहीं पहचान सकते ? किसानोंको मर्यादामें रहकर कपास बोना और तम्बाकू कम या बिलकुल ही न बोना कौन सिखा सकता है ?

कन्याके बदले कन्या देना आदि विवाह सम्बन्धी कुप्रथाओंका सुधार कसे किया जा सकता है ? व्याख्यानोंसे कितना कार्य हो सकेगा ? इन सबका मूल उपाय भी नीतिकी शिक्षा देना ही है । नीतिकी शिक्षा देनेके माने हैं जिसे उसका ज्ञान है वह उसपर जाहिर तौरपर अमल करे और ऐसा करनेमें जो कष्ट हों उन सबको सहन कर ले।

छोटी-छोटी जातियोंको एक करनेके लिए सम्भवतः कुछ दिनोंमें प्रयत्न किया जायेगा ।

जरा-सी बीड़ी। वह भी दुनियाका कैसा नाश कर रही है। बीड़ीका ठण्डा नशा कुछ अंशोंमें मद्यपानसे भी अधिक हानिकर है, क्योंकि मनुष्य उसका दोष आसानीसे नहीं देख पाता। इतना ही नहीं कि उसके उपयोगको असभ्यता नहीं गिना जाता; बल्कि सभ्य कहलानेवाले लोग ही उसका अधिक उपयोग कर रहे हैं । फिर भी जो लोग इससे बच सकते हैं, उन्हें अवश्य बचना चाहिए।

विधवा विवाह आवश्यक है। यह तो तभी होगा जब युवक शुद्ध बन जायेंगे । लेकिन युवक शुद्ध कहाँ हैं ? वे अपनी शिक्षाका सदुपयोग कहाँ करते हैं ? अथवा इसे सदोष शिक्षाका ही परिणाम क्यों न मानें ? हमें बाल्यकालसे ही पराधीनताकी शिक्षा मिलती है ? इस कारण हम स्वतन्त्र विचार करना कैसे सीख सकते हैं; और तब स्वतन्त्र आचारका सवाल ही कहाँ उठता है ? जातिके गुलाम, शिक्षाके गुलाम और सरकारके गुलाम । हमारे लिए तो " सब साधन बन्धन भये" यही कहा जा सकता है। इतने पढ़े-लिखे लोग हैं, उनमें से कितनोंने अपने यहाँको बाल विधवाओंका जीवन सुधारा है? कितने रुपयेके प्रलोभनसे बच सके हैं ? कितनोंने स्त्री जातिकी