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अस्पृश्यताकी हिमायत

 

लेखकने जिस प्रश्नको उठाया है उसपर पहले कई मर्तबा विचार किया जा चुका है; फिर भी उनकी दलीलोंके मिथ्याभासको दूर करना आवश्यक मालूम होता है। पहली बात तो यह है कि ब्राह्मणोंकी तरफसे जो यह दावा किया जा रहा है कि वे निरामिषभोजी हैं, सोलहों आने सच नहीं है। यह केवल दक्षिणके ब्राह्मणोंके सम्बन्धमें ही ठीक है। दूसरी जगहों में तो जैसे बंगालमें वे खुलेआम मछली खाते हैं; कश्मीर इत्यादि स्थानों में तो मांस भी खाते हैं। और दक्षिणमें भी मांस और मछली खानेवाले सभी लोग अनुपगम्य नहीं है। और जो 'अनुपगम्य लोग' अत्यन्त पवित्र हैं वे भी बहिष्कृत हैं, क्योंकि उनका जन्म उस कुलमें हुआ है जो अन्यायपूर्वक 'अस्पृश्य' और 'अनुपगम्य' गिना जाता है। क्या ब्राह्मण किसी आमिषभोजी अब्राह्मण अधिकारीको स्पर्श नहीं करते? क्या वे मांस खानेवाले हिन्दू राजाओंका आदर नहीं करते?

पत्रके लिखनेवाले व्यक्ति जैसे शिक्षित मनुष्योंको, एक ऐसे रिवाज जिसका किसी भी प्रकारसे पक्ष नहीं लिया जा सकता है और अब जिसकी जड़ें हिल चुकी हैं, विवेकहीन जोशमें आकर अपनी दलीलोंके स्पष्ट अर्थका विचार किये बिना ही, समर्थन करते हुए देखकर मुझे बड़ा ही आश्चर्य और दुःख होता है। लेखक महोदय मांस खानेमें निहित छोटी-सी हिंसाकी बातको इतना तूल दे रहे हैं; परन्तु एक काल्पनिक शुचिताकी रक्षाके लिए करोड़ों भाइयोंको जानबूझकर दबाये रखनेकी कई गुनी हिंसाको वे भूल ही जाते हैं। मेरा उनसे यह निवेदन है कि जिस निरामिषताकी रक्षाके लिए दूसरे मनुष्योंको अपनेसे नीचा मानकर उनका बहिष्कार करना पड़ता है, वह संग्रह करने योग्य नहीं है। यदि उसकी रक्षा इस प्रकार की जायेगी तो वह गर्मीमें उगने- वाली घासके समान ठंडी हवाका झोंका लगते ही नष्ट हो जायेगी। निरामिषताको मैं बड़ा महत्व देता हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि ब्राह्मणोंने निरामिषता और स्वयं निर्मित संयमके प्रतिबन्धोंके पालनसे आध्यात्मिक लाभ उठाया है। लेकिन जब वे अति उन्नत अवस्थामें थे उस समय उन्हें अपनी पवित्रताकी रक्षा करनेके लिए बाह्य मददकी आवश्यकता नहीं थी। कोई भी गुण हो, जब वह बाह्य प्रभावोंका सामना करने में असमर्थ हो जाता है, तब उसकी जीवनी शक्ति नष्ट हो जाती है।

और फिर लेखक जिस प्रकार की रक्षाका जिक्र करते हैं वैसी रक्षाकी ब्राह्मणों द्वारा मांग पेश करनेकी घड़ी बीत चुकी है, क्योंकि अब सद्भाग्यसे ऐसे ब्राह्मणोंकी तादाद बढ़ रही है जो उस प्रकार रक्षाकी बातको घृणाकी दृष्टिसे देखते हैं। इतना ही नहीं; जो सताये जानेकी जोखिम उठा करके भी इसमें सुधार करनेकी हलचलके नेता बने हुए हैं। इसीसे सुधारके अतिशीघ्र प्रगति करनेकी जबर्दस्त आशा बंधती है।

लेखक मुझसे यह चाहते हैं कि मैं दलित वर्गोंके लोगोंको पवित्र बननेका उप- देश दूं। मालूम होता है कि वे 'यंग इंडिया' नहीं पढ़ते हैं; अन्यथा वे यह अवश्य जान सकते थे कि उन्हें ऐसा उपदेश देनेका एक भी मौका में हाथसे नहीं जाने देता। मैं उन्हें यह भी बताऊँ कि इसका सन्तोषजनक उत्तर भी मिल रहा है। मैं लेखकको उन सुधारकोंके वर्गमें शामिल होनेके लिए आमन्त्रित करना चाहता हूँ जो