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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

लेकिन इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति कसाई, मांस खानेवाले और शराबखोरों में जाकर रहे तो यह सम्भव नहीं कि वह उनमें रह भी सके और अपने विशिष्ट गुणोंकी रक्षा भी कर सके। स्वभावतः हम लोग अपनी रुचिके अनुकूल ही वातावरण ढूंढ़ते हैं। यही कारण है कि ब्राह्मणके रहनकी जगह, उसका पास-पड़ोस भौतिक, नैतिक और धार्मिक रूपसे पवित्र बनाये रखना और कसाइयों, मछुओं और ताड़ी बनानेवालोंके अनधिकार प्रवेशसे रक्षित रहना जरूरी है।

भारतवर्ष में जाति और उनके धन्धे अविच्छिन्न भावसे जुड़े हुए हैं, इसलिए स्वभावतः जिस जातिका वह मनुष्य है, उसका धन्धा भी वही मान लिया जाना स्वाभाविक है।

यही कारण है कि हमें शास्त्रों द्वारा अस्पृश्यता और अनुपगम्यताकी मर्यादा माननेका आदेश दिया गया है। जैसा ऊपर कहा जा चुका है इससे हमारी जातिकी पवित्रताकी रक्षा ही नहीं होती है बल्कि मर्यादा भंग करनेवालोंको जातिसे बहिष्कृत होनेकी सामाजिक और धार्मिक सीधी सजा मिल जाती है और इसलिए प्रकारान्तरसे यदि वे हमारे साथ सब प्रकारका व्यवहार रखना चाहते हो तो यह व्यवस्था उन्हें अपनी बुरी आदतोंको छोड़नेके लिए मजबूर भी करती है।

इसलिए यदि वे लोग अनुपगम्यताके बन्धनसे कुछ ही वर्षोंमें मुक्त होना चाहते हैं तो आप उन्हें सार्वजनिक तौरसे यह उपदेश दें कि वे अपने दूषित कार्योंको त्याग दें और कताई-बुनाईका काम करने लगे। इसके साथ ही साथ वे आवश्यक धार्मिक कृत्य जैसे नहाना, उपवास और प्रार्थना इत्यादि भी किया करें। उन्हें उन लोगोंके साथ मिलना-जुलना बन्द कर देना चाहिए जिन लोगोंने अपनी पुरानी आदतोंका त्याग नहीं किया है। शास्त्रोंने यही मार्ग दिखाया है। चूंकि किसी व्यक्तिके खानगी कुकर्मोको या उसके सत्कर्मोको जाननेका कोई मार्ग नहीं है अतः यह कहना निरर्थक है कि अमुक व्यक्तिका मन पवित्र है और अमुकका मन मैला है। मनुष्यकी सामाजिक आदतोंसे ही हम उसके खानगी जीवनकी परीक्षा कर सकते हैं। इसलिए जो व्यक्ति खुले तौरसे हमारी-आपकी मातृभूमिके अहिंसा धर्मको अंगीकार नहीं कर सकता है। या जो कमसे-कम मछली मारना, अन्य पशुओंका वध करना तथा मांस खाना नहीं छोड़ सकता है, वह इस योग्य नहीं माना जा सकता कि वह अनुपगम्यता- की परम्परासे मुक्त किया जाये। सच बात तो यह है कि अस्पृश्यता और अनुपगम्यता अहिंसा धर्मको रक्षा और उसके प्रचारका एक व्यावहारिक साधन होनेके अतिरिक्त और कुछ नहीं है।