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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

फिर उनको अपना पूरा समय अपने मालिकोंको देना होता था। अंग्रेजी पढ़े लोगों का दूसरा वर्ग उन हिन्दुस्तानियोंका था जो दक्षिण आफ्रिकामें ही पैदा हुए थे। ये ज्यादातर गिरमिटियोंकी सन्तान थे। इनमें से जो थोड़े बहुत कुशल थे, वे ज्यादातर अदालतों में दुभाषियोंके रूपमें सरकारी नौकरी करते थे। इसलिए वे जातिकी सेवामें अधिकसे-अधिक सहानुभूति ही दिखा सकते थे। फिर गिरमिटिये और गिरमिट मुक्त हिन्दुस्तानी मुख्यतः संयुक्त प्रान्त और मद्रास अहातेसे आये हुए लोग थे । स्वतन्त्र हिन्दुस्तानी गुजरातके मुसलमान थे और ये मुख्यतः व्यापारी थे । हिन्दू मुख्यतः मुनीम या मुन्शी थे, यह हम पीछे कह चुके हैं। इनके अतिरिक्त कुछ पारसी भी थे जो व्यापारियों और मुनीमोंके वर्गके थे । समूचे दक्षिण आफ्रिकामें पारसियोंकी कुल संख्या सम्भवतः ३०-४० से अधिक नहीं थी । स्वतन्त्र व्यापारी वर्गमें एक चौथा समुदाय सिंधी व्यापारियोंका था। पूरे दक्षिण आफ्रिकामें दो सौ या इसके कुछ अधिक सिन्धी होंगे। कहा जा सकता है कि वे हिन्दुस्तानके बाहर जहाँ-जहाँ बसे हैं, उनका व्यापार वहाँ एक ही प्रकारका है। वे फेन्सी मालके व्यापारियोंके रूपमें प्रसिद्ध हैं और मुख्यत: फेन्सी चीजें बेचते हैं, जिनमें रेशम और जरीकी चीजें, बम्बईकी बनी शीशम, चन्दन और हाथीदांतकी खुदाईकी पेटियाँ, और इसी प्रकारकी दूसरी सजावटकी चीजें आती हैं और उनके ग्राहक प्रायः गोरे ही होते हैं ।

गोरे लोग गिरमिटियोंको कुली कहकर पुकारते हैं। कुलीका अर्थ है बोझा ढोने- वाला। यह चलन इतना रूढ़ है कि गिरमिटिया भी अपने आपको कुली कहनेमें झिझक नहीं मानता। धीरे-धीरे यह नाम सभी हिन्दुस्तानियोंके लिए प्रयुक्त होने लगा। सैकड़ों गोरे हिन्दुस्तानी वकीलोंको कुली वकील और हिन्दुस्तानी व्यापारियोंको कुली व्यापारी कहते हैं। इस विशेषणका प्रयोग करने में ज्यादातर गोरे कोई दोष नहीं मानते। बहुत से हिन्दुस्तानियोंके लिए कुली शब्दका प्रयोग तिरस्कार प्रकट करने के उद्देश्यसे ही करते थे। इसलिए स्वतन्त्र हिन्दुस्तानी अपने-आपको गिरमिटियोंसे अलग बतानेका प्रयत्न करते थे। इस कारणसे और अन्य ऐसे कारणोंसे दक्षिण आफ्रिकामें स्वतन्त्र हिन्दुस्तानियोंके वर्ग और गिरमिटियों और गिरमिटमुक्त हिन्दुस्तानियोंके वर्गमें भेद किया जाने लगा ।

भारतीयोंके अपार कष्टोंको दूर करने का काम स्वतन्त्र हिन्दुस्तानियोंके वर्ग और मुख्यतः मुसलमान व्यापारियोंने अपने हाथमें लिया, किन्तु उन्होंने उस समय जानबूझकर गिरमिटियों अथवा गिरमिट मुक्त हिन्दुस्तानियोंको साथ लेनेका कोई प्रयत्न नहीं किया। उनको साथ लेनेकी बात शायद उस समय सूझी भी नहीं, यदि सूझती तो उनको साथ लेने से काम बिगड़ भी सकता था। यह मानकर कि संकट मुख्यतः स्वतन्त्र व्यापारी समुदायपर है, इसलिए रक्षाके प्रयत्नने ऐसा सीमित रूप ले लिया। अनेक कठिनाइयोंके बावजूद और अंग्रेजी भाषाके ज्ञान तथा हिन्दुस्तान में सार्वजनिक कामका कोई पूर्व अनुभव न होनेपर भी, कहा जा सकता है कि इस स्वतन्त्र वर्गने इन कष्टोंके विरुद्ध बहुत अच्छी लड़ाई लड़ी। उन्होंने गोरे वकीलोंकी सहायता ली, प्रार्थनापत्र लिखवाये, कभी-कभी शिष्टमण्डल भेजे और जहाँ सम्भव हो सका और उनको सूझा वहाँ प्रति- रोध किया। १८९३ तक यही स्थिति थी ।

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