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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पाठकोंको इस पुस्तकको समझनेके लिए कुछ तारीखें याद रखनी पड़ेंगी। यदि वे इस पुस्तकके अन्तमें मुख्य घटनाओंके तारीखवार दिये गये परिशिष्टोंको कभी-कभी देख लेंगे तो उनको इस लड़ाईका मर्म और स्वरूप समझनमें सहायता मिलेगी। ऑरेंज फ्री स्टेटसे हम सन् १८९३ में बिलकुल निकाले जा चुके थे। ट्रान्सवालमें १८८५ का कानून लागू था और नेटालमें भी किस प्रकार केवल गिरमिटिया हिन्दुस्तानी ही वहाँ रहें और किस प्रकार दूसरोंको निकाल बाहर किया जाये इसपर विचार किया जा रहा था। इसके लिए वे उत्तरदायी शासन प्राप्त कर चुके थे।

मैं १८९३ के अप्रैलमें हिन्दुस्तानसे दक्षिण आफ्रिकाको रवाना हुआ था। मुझे प्रवासी भारतीयोंके पूर्व इतिहासकी कोई जानकारी नहीं थी। मैं वहाँ विशुद्ध स्वार्थ भावसे गया था। डर्बनमें पोरबन्दरके मेमनोंकी दादा अब्दुल्ला के नामसे एक प्रसिद्ध पेढ़ी थी । उतनी ही प्रसिद्ध एक दूसरी पेढ़ी उनके प्रतिद्वन्द्व और पोरबन्दरके दूसरे मेमन तैयब हाजी खान मुहम्मदकी प्रिटोरियामें थी । दुर्भाग्यसे इन दोनों प्रतिस्पधियोंमें एक बड़ा मुकदमा चल रहा था । पोरबन्दरमें दादा अब्दुल्लाका जो हिस्सेदार था उसने यह सोचा कि यदि मुझ जैसा नौसिखिया बैरिस्टर भी वहाँ चला जाये तो उनकी पेढ़ीको कुछ सुविधा हो जायेगी। मुझ-जैसे नये और बिलकुल अनुभवहीन वकीलसे उन्हें काम बिगड़नेका कुछ भय नहीं था; क्योंकि मुझे उनकी ओरसे अदालतमें पैरवी नहीं करनी थी; बल्कि उनके रखे हुए कुशल वकीलों और बैरिस्टरोंको मामला समझानेका अर्थात् दुभाषिएका काम करना था। मैं नये अनुभवोंके लिए उत्सुक रहता था और मुझे सैर-सपाटा भी प्रिय था। बैरिस्टर रहते हुए दलालोंको मुवक्किल जुटानेके लिए कमीशन देना मुझे बहुत बुरा लगता था और काठियावाड़के षड्यन्त्रोंसे भरे वातावरणमें मुझे बेचैनीका अनुभव होता था। मुझे एक ही सालका इकरार करके वहाँ जाना था। मैंने सोचा कि इस इकरारमें कोई अड़चन नहीं है। इससे हानि तो हो ही नहीं सकती। क्योंकि मेरे जाने-आनेका और वहाँ रहनेका खर्च दादा अब्दुल्लाके ही जिम्मे था; और उसके अलावा एक सौ पाँच पौंड मिलते। यह सारी बातचीत मेरे भाई साहबके मारफत हुई थी। वे मेरे लिए पिताके समान थे। जो बात उनको. मंजूर थी वह मुझे भी मंजूर थी। उन्होंने मेरे दक्षिण आफ्रिका जानेकी बातको ठीक माना था। इसलिए मैं १८९७ के मई महीनेमें डर्बन पहुँच गया ।

बॅरिस्टरकी शानका क्या कहना। मैं अपने विचारसे बढ़िया कोट-पैन्ट आदिसे सज्जित होकर ठाठके साथ वहाँ पहुँचा, किन्तु वहाँ उतरते ही मुझे भारतीयों की स्थितिका थोड़ा बहुत अन्दाज लग गया। दादा अब्दुल्लाके भागीदारोंने बातचीतमें जैसा बताया था मुझे वहाँकी स्थिति उससे बिलकुल उलटी ही दिखी। इसमें उनका दोष कुछ भी न था । इसका कारण उनका भोलापन, उनकी सरलता और उनका स्थिति विषयक अज्ञान था। नेटालमें हिन्दुस्तानियोंके सम्मुख जो-जो कठिनाइयाँ आती थीं उनकी कल्पना उनको नहीं थी। और वहाँ जो गम्भीर अपमानजनक व्यवहार उनके साथ किया जाता था, वे उसे अपमानजनक नहीं मानते थे। किन्तु मैंने तो पहले ही देख लिया कि भारतीयोंके प्रति गोरोंका व्यवहार बहुत ही अपमानजनक है।