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भूमिका

सन् १८९८ से १९०३ तक गांधीजी दक्षिण आफ्रिकामें रहे । केवल एक वर्ष (१९०१-१९०२) वे वहाँ नहीं थे भारतमें थे। ये वर्ष भारतीयोंके हितकी दृष्टिसे गांधीजीकी सरगर्म कोशिशों के वर्ष थे। यह उनके व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवनका महत्त्वपूर्ण समय था। इन दिनों अपने जीवनको अधिकाधिक सरल बनाने और अपने देशभाइयोंकी सेवा करनेकी प्रेरणा उन्होंने निर- न्तर बढ़ती हुई अनुभवकी । डर्बनके भारतीय अस्पतालमें रोज घंटे-दो-घंटे उन्होंने सहायककी तरह काम किया और गिरमिटिया भारतीयोंके घनिष्ठ सम्पर्कमें आये। उन्होंने बच्चोंकी हिफाजत और तीमारदारीमें भी विशेष दिलचस्पी ली।

सन् १८९८ में नेटाल भारतीय कांग्रेसकी सदस्य-संख्या बढ़ाने और उसके लिए कोश निर्माण करने में उन्होंने बड़ी मेहनतकी । सन् १८९९ में जब बोअर-युद्ध शुरू हुआ, उन्होंने भारतीय आहत-सहायक दलका संगठन किया और नेटाल-सरकारको उसकी सेवाएं दे दी। तब उन्हें अपने ब्रिटिश नागरिक होनेका अभिमान था। दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोपर प्रायः यह दोष मढ़ा जाता था कि वे केवल धन-संग्रहमें लगे हुए स्वार्थी लोग है। गांधीजी इस आरोप को गलत सिद्ध करने के लिए विकल थे। मोर्चे पर अक्सर गोलियोंकी बौछार में छ: सप्ताह रहकर गांधीजी और दलके शेष लोगोंने जो सेवाएँ की, उनकी सबने प्रशंसा की। कलकत्तेके अपने एक भाषण में उन्होंने मोर्चे पर प्राप्त सम्पन्न अनुभवका जिक्र किया था। उन्होंने वहाँकी पूर्ण व्यवस्था और पवित्र निस्तब्धताका मिलान ट्रैपिस्ट मठोंके जीवनसे किया और कहा : "तब फौजी सिपाही निर- पवाद रूपसे प्यारा था ... उन्हें अर्जुनके समान विशुद्ध कर्त्तव्यकी भावना युद्धक्षेत्रमें ले गई थी। और इसने कितने जंगली, घमंडी और उद्धत जनोंको सिखाकर भगवानके नम्र जीवोंमें नहीं बदल दिया है?"

अक्टूबर १९०१ में गांधीजीने माना कि दक्षिण आफ्रिकामें उनका काम खत्म हो चुका है। और उन्होंने भारत लौटना निश्चित किया। अपने मनका स्नेह और आदर व्यक्त करते हुए भारतीयोंने उन्हें मानपत्र और बहुमूल्य भेंटें दी। इस धनराशिको गांधीजीने एक बैंकमें जमा करके एक न्यास (ट्रस्ट) बना दिया कि वह पैसा दक्षिण आफ्रिकामें सार्वजनिक कार्यों में लगाया जा सके। यदि उनकी सेवाओंको आवश्यकता पड़े तो लौटनेका वचन देकर बड़ी कठिनाई से गांधीजी भारत रवाना हो सके।

देशमें आकर गांधीजी अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके अधिवेशनमें कलकत्ता गये और उन्होंने दक्षिण आफ्रिकापर प्रस्ताव पेश किया। वहाँ भारतीयोंकी अवस्थाके बारेमें उन्होंने सार्व- जनिक सभाओंमें भाषण दिये और वे अनेक प्रमुख भारतीय नेताओंसे मिले । गोखलेसे उन्हें विशेष लगाव हुआ। उनके साथ वे कलकत्तेमें एक महीना रहे।

राजकोट लौटकर उन्होंने वकालत जमानेका प्रयत्न किया; किन्तु प्रारम्भिक कठिनाइयाँ आती रहीं। प्रायः भारतीय समाचारपत्रोंमें लिखकर दक्षिण आफ्रिकाकी बढ़ती हुई परेशानियों पर वे चिन्ता व्यक्त करते रहे। वे दक्षिण आफ्रिका-स्थित अपने सहयोगियोंसे बराबर सम्पर्क बनाये रहे और वहाँकी परिस्थितियोंकी जानकारी प्राप्त करते रहे।

जब राजकोटमें प्लेगका खतरा हुआ, वे प्लेग-स्वयंसेवक समितिके मन्त्री बने। कुछ समयके बाद बम्बई जाकर उन्होंने अपनी वकालतको यशस्वी बनानेकी ओर ध्यान दिया।


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