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नवम्बर १९०२ में उपनिवेश-मंत्री श्री चेम्बरलेन दक्षिण आफ्रिका जा रहे थे, अत: वहाँके भारतीयोंने गांधीजीसे लौटनेका आग्रह किया। अपने जीवनकी इस अनिश्चितताके समयमें उन्होंने प्रभुके रूप सत्यको ध्रुवतामें अपनी श्रद्धा प्रकट की। इस अवसरका जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा है, "इस संसार में जो एक परमतत्त्व निश्चित रूपसे निहित है, यदि उसकी झांकी सध सके, उसपर श्रद्धा रहे, तभी जीना सार्थक है। उसकी खोज ही परम पुरुषार्थ है।" (गुजराती आत्मकथा, १९५२, पृष्ठ २५०) । उनका दक्षिण आफ्रिका लौटना इस खोजका संकल्प था।

दिसम्बर खत्म होते-होते वे डर्बन पहुँचे। उन्होंने देखा कि ट्रान्सवालमें नये एशियाई विभागके द्वारा भारतीयोंपर पुराने बोअर-नियम अभूतपूर्व कठोरतासे लागू किये जा रहे हैं। उन्होंने चेम्बर- लेनके समक्ष एक प्रतिनिधिमण्डलका नेतृत्व किया और दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंपर लादी गई वैधानिक निर्योग्यताओंको सामने रखा । दक्षिण आफ्रिकी भारतीयोंके धुंधले भविष्यकी संभावना से उन्होंने भारत लौटना मुलतवी करके जोहानिसबर्ग में रहना तय किया। ट्रान्सवालके सर्वोच्च न्यायालयकी सनद लेकर वे फिर से भारतीयोंकी शिकायतों को दूर करानेके लिए अनेक मोचों- पर काम करने लगे। गोखलेको लिखे गये एक पत्रमें वहाँके आन्दोलनकी बढ़ती हुई गतिके बारेमें उन्होंने कहा, "संघर्ष मेरी अपेक्षासे बहुत अधिक जोरदार है।"

इस समय उनका व्यक्तिगत जीवन आत्म-निरीक्षणके एक नये दौरसे गुजरा। जिस तरह दक्षिण आफ्रिकाके पहले निवासमें ईसाई मतने उनकी धार्मिक जिज्ञासाको प्रभावित किया था, उसी तरह इस बार थियॉसफ़ीने उन्हें प्रभावित किया और वे हिन्दू धर्मशास्त्रोंके गम्भीर अध्ययनकी ओर प्रेरित हुए। गीता उनके लिए “आचारकी प्रौढ़ मार्गदर्शिका," "धार्मिक कोश" हो गई और उन्होंने उसे कंठस्थ कर लिया। अपरिग्रहके विचारने उनके मनको इतना जकड़ा कि उन्होंने अपनी बीमाकी पालिसी रद करा दी। उन्होंने निश्चय किया, अबसे उनके पास जो बचेगा जनताकी सेवामें खर्च होगा। इस निर्णयसे उनके बड़े भाई श्री लक्ष्मीदास और उनके बीच गम्भीर गलतफहमी पैदा हो गई, जो श्री लक्ष्मीदासकी मृत्युके कुछ ही पहले मिटी।

जोहानिसबर्गमें प्लेग फैलनेपर फिर सार्वजनिक सेवाका अवसर आया। सहयोगियोंके एक छोटे-से दलके साथ नगरपालिकाकी ओरसे प्रबन्ध होने तक वे स्वभावके अनुसार जोखिम उठाकर बीमारोंकी सेवामें लग गये। भारतीय बस्तीसे गिरमिटिया मजदूरोंको हटाकर क्लिप्सप्रूट फार्म के तम्बुओंमें कर दिया गया था। गांधीजी रोज वहाँ जाते थे और उनकी विपत्तिमें उन्हें धीरज बंधाते थे। प्लेगके बारेमें उन्होंने समाचारपत्रोंमें एक चिट्ठी लिखी और उसके कारण वे दो यूरो- पीयोंके सम्पर्कमें आये : पादरी जोसफ़ डोक और हेनरी पोलक। बादमें ये उनके मित्र और सहयोगी बन गये। अलबर्ट वेस्टसे उनकी पहचान नयी-नयी हुई थी। इस पत्रके कारण वे भी और पास आये।

गांधीजीकी प्रेरणा से जून १९०३ में डर्बनसे इंडियन ओपिनियन का प्रकाशन शुरू हुआ। दक्षिण आफ्रिकी भारतीयोंके आन्दोलनमें इससे नवजीवन आया। भारतीय समाजको “उसकी भाव- नाएँ प्रकट करनेवाला और विशेष रूपसे उसके हितमें संलग्न" मुखपत्र मिल गया।

यद्यपि सम्पादककी जगह इस पत्रमें कभी गांधीजीका नाम नहीं रहा फिर भी यह जानना आवश्यक और दिलचस्प होगा कि उन्होंने इंडियन ओपिनियनकी जिम्मेदारी अपनी मानी थी।

उन्होंने इस पत्रके बारेमें आत्मकथामें लिखा है :

सम्पादकत्व का सच्चा भार मुझ पर ही पड़ा। बहुत हद तक, मेरे भाग्य में हमेशा दूरसे ही अखबार चलाना रहा है। मनसुखलाल नाजर [प्रथम सम्पादक ] तन्त्र चला


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