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पत्र: उपनिवेश-सचिवको

मुझे वर्तमान कानूनके अमलमें लाये जानेका थोड़ा-सा अनुभव है। ये मुकदमे जिस ढंगसे होते हैं उससे हमेशा शिकायत करनेवालेके पक्षका समर्थन नहीं होता। और मजिस्ट्रेट, अतिशयो- क्तियोंकी भूलभुलैयाँ पार करने में असमर्थ होने के कारण, शिकायतोंको अक्सर “परेशान करने- वाली और निरर्थक" ठहराने के लिए लाचार हो जाते हैं, भले ही शिकायतें बिलकुल सच्ची क्यों न हों।

इसका उपाय' अगर मुझे सुझानेकी इजाजत हो, और अगर सचमुच उसकी जरूरत हो तो, इस प्रकारकी शिकायतोंके शीघ्रतापूर्ण निबटारेमें है। अगर यह बुराई किसी भी बड़े पैमानेपर मौजूद ही हो तो एक ऐसा कानून बना देनेसे उसका निवारण हो जायेगा, जिससे कि ये शिकायतें दूसरी सब शिकायतोंसे पहले सुनी जा सके, अभियोक्ताको थोड़ीसे-थोड़ी अवधिकी सूचनापर इन शिकायतोंको पेश करनेका अधिकार मिल जाये और, कदाचित्, जब शिकायती लोग अपनी जायदादोंसे बाहर हों तब उन्हें दूसरा काम करनेके लिए बाध्य किया जा सके, ताकि काम न करनेकी वृत्तिको प्रोत्साहन न मिले। ऐसा करनेसे सम्बद्ध व्यक्तिको स्वतन्त्रता कम किये बिना और उनका शिकायत करना भी असम्भवप्राय बनाये बिना काम चलाया जा सकता है।

मैं इस लम्बी दलीलके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। मैं जानता हूँ कि सरकार मनुष्य और मनुष्यके बीच न्याय करने और मामलेके दोनों पक्ष सुननेको उत्सुक इसलिए मैंने समझा कि भारतीयोंने इस विषयको जिस दृष्टि से देखा है उसे यदि मैं सरकारके सामने पेश न करूं तो अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाऊँगा। मजदूरोंके मालिकोंकी स्थिति ही ऐसी है कि वे प्रश्नको केवल एकांगी दृष्टि से देख सकते हैं। दूसरी ओर, स्वतन्त्र भारतीय गिरमिटिया भारतीयोंके बन्धु-बान्धव हैं और मालिक नहीं हैं। इसलिए उन्हें रागद्वेष-रहित विचार व्यक्त करनेकी इजाजत दी जाये। इन परिस्थितियोंमें, क्या मैं आशा कर सकता हूँ कि जिस धाराकी शिकायत की गई है उसे सरकार निकाल देने या इस तरहसे बदल देनेकी कृपा करेगी, जिससे कि गिरमिटिया भारतीयोंका शिकायत करनेका अधिकार ही न छिन जाये?'

आपका आज्ञाकारी सेवक,
 
मो० क० गांधी
 

[अंग्रेजीसे]

नेटाल आर्काइज़, पीटरमैरित्सबर्ग, सी० एस० ओ० १६१४, फाइल ३८४२ ।

१. उपनिवेश-सचिवने मई २९, १८९९ को इसका उत्तर दिया। उन्होंने गांधीजीका सुझाव स्वीकार नहीं किया।


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