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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

कहा जाता है कि गिरमिटिया भारतीय वे शिकायतें बार-बार करते हैं और उन्हें अपना काम छोड़नेका बहाना बनाते रहते हैं।

विधेयकका मंशा उस कथित बुराईका इन उपायोंसे निवारण करना है:

(१) संरक्षक, सहायक संरक्षक या किसी मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायती व्यक्तिका, शिकायत दर्ज कराने के बाद, उसके कामपर वापस भिजवा दिया जाना वैध करार देकर;

(२) मालिकको कतिपय परिस्थितियोंमें यह अधिकार देकर कि वह शिकायती व्यक्तिके सकुशल वापस भेज दिये जानेका खर्च उसकी मजदूरीसे काट ले;

(३) उन्हीं कतिपय परिस्थितियोंमें शिकायती व्यक्तिको ऐसा दण्डनीय करार देकर, मानो वह गैर-कानूनी तौरपर गैरहाजिर रहा हो।

सम्मानके साथ निवेदन है कि यह विधेयक गिरमिटिया-प्रथाके अधीन मजदूरी करनेवाले लोगोंकी डांवाडोल स्थितिको और भी कठिन बना देगा। गिरमिटिया-प्रथाको तो साम्राज्य- सरकारने एक आवश्यक बुराई, और मजदूरीके इस स्वरूपसे परिचित लोगोंने " "अर्ध दासता भयानक रूपमें दासताके निकटकी स्थिति" माना है।

मेरी नम्र रायमें, रामस्वामी और भारतीय प्रवासी-संरक्षकके मामले में सर्वोच्च न्यायालयके निर्णयके साथ वर्तमान कानून ही मालिकोंकी जरूरत पूरी करनेके लिए काफ़ी होगा बत्ता, अगर वह ईमानदार शिकायतियोंको भी रोकनेका काम नहीं करता। जो लोग काम करना ही नहीं चाहते और ईमानदारीसे काम करनेके बदले जेलमें सड़ते रहना पसन्द करते हैं, उनके लिए तो कोई कानून काफी नहीं होगा-- नहीं हो सकता। फिर भी, अगर सरकार मालिकोंको राजी करना और वर्तमान कानूनको अधिक स्पष्ट बनाना जरूरी समझती है, तो मैं महसूस करता हूँ कि, जहाँतक पहले दो परिवर्तनोंका सम्बन्ध है, भारतीयोंके दृष्टिकोणसे प्रस्तावित संशोधनके खिलाफ कुछ भी कहनेकी जरूरत नहीं है। परन्तु मैं कहनेकी धृष्टता करता हूँ कि अन्तिम धारा अनावश्यक है और उसका मंशा १८९१ के कानून २५ के अन्तर्गत सुरक्षित शिकायती व्यक्तिके अधिकारमें- कि वह शिकायत दर्ज करानेके लिए अपना काम छोड़कर जा सकता है -हस्तक्षेप करना है। वह ऐसे शिकायतीपर गैरकानूनी तौरसे अनुपस्थित रहनेका अभियोग लगानेका अधिकार देती है, जिसको धारणा हो-- चाहे वह सही हो या गलत--कि वह शिकायत करनेके लिए अपने कामको बिना दण्ड-भयके छोड़ सकता है। किसी भारतीयके मनमें यह बात उठ सकती है कि उसे तेलके बदले घी नहीं मिलता, यह उसके साथ अन्याय है, जिसका निवारण होना चाहिए। यह शिकायत, बिलकुल सम्भव है, मजिस्ट्रेट या संरक्षक द्वारा निरर्थक ठहराई जाये। फिर भी, मैं नहीं समझता कि निरर्थकता इतनी बड़ी है कि वह अभियोक्ताको अभियुक्तके रूपमें बदल दे। मेरा निवेदन है कि जो भी आदमी ईमानदारीसे मानता हो कि उसे कोई शिकायत है, उसको वह शिकायत दर्ज करानेकी हरएक सुविधा दी जानी चाहिए। और, अगर यही न मान लिया जाये कि औसत दर्जे के गिरमिटिया भारतीय कानूनी और तार्किक बुद्धिके धनी हैं, तो यह प्रस्ताव वैसी सुविधा देनेवाला नहीं है।

निरर्थक शिकायतोंके विरुद्ध जिन रोकोंकी व्यवस्था की गई है वे, निवेदन है, दण्डकी धारा जोड़े बिना ही काफ़ी सख्त हैं। कदाचित् गिरमिटिया भारतीयोंके लिए मजदूरीका कट जाना कारावाससे ज्यादा कष्टप्रद है।

अगर मैंने विधेयकको ठीक-ठीक पढ़ा है तो, मेरा नम्र मत है, इस हकीकतसे कि वह सिर्फ अख्तियार देनेवाला विधेयक है, उपर्युक्त दलील किसी भी तरह कमजोर नहीं हो जाती।


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