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नौ

मताधिकारपर प्रतिबन्ध दक्षिण आफ्रिकामें भारतीय परिस्थितिका एक स्थायी अंग था।

जब ट्रान्सवाल-सरकारने निर्वाचित नगर-परिषदोंके अध्यादेशके मसविदेमें भारतीयोंको मतदानके अधिकारसे वंचित करनेका संशोधन करना चाहा तब गांधीजीने विधान-सभाको रंगके आधारपर इस भेदभावका विरोध करते हुए प्रार्थनापत्र भेजा (जून १०, १९०३) ।

दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंके सामने उपस्थित इन प्रमुख समस्याओंके अतिरिक्त गांधीजीने गिरमिटिया मजदूरोंके बच्चोंपर व्यक्ति-कर, भारतीय रिक्शा चालकोंपर रोक, हाइडेलवर्गमें भारतीय व्यापारियोंपर पुलिसके अत्याचार, और अमतलीमें भारतीय व्यापारियोंके विरुद्ध गोरी- जनताको उत्तेजना जैसी अनेक दूसरे स्तरकी समस्याओंको भी हाथमें लिया।

गांधीजीके इस कालके सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत कथन अथवा लेखनका प्रधान लक्षण ब्रिटिश विधानमें उनका अविच्छिन्न विश्वास, ब्रिटिश नागरिकताके लाभों और राष्ट्रोंके परिवारके रूपमें साम्राज्यपर निष्ठा था। उनका सम्राज्ञीके जन्म-दिवसोंपर वधाइयाँ भेजना, सम्राज्ञीके देहावसानपर शोक-सभाओंका आयोजन करना, ब्रिटिश प्रजाके समान नागरिकताके अधिकारों और व्यक्तिगत स्वतन्त्रताका अपने पत्रों और निवेदनोंमें बारंबार उल्लेख, सम्राज्ञीकी घोषणा, १८५८, का निरन्तर उद्घोष, बोअर-युद्ध में भारतीय आहत-सहायक दलका प्रस्ताव और सेवा- कार्य आदि सभी बातोंका प्रेरणा-बिन्दु उनको साम्राज्य-भावना थी। अक्टूबर १९०१ में अपनी विदाईके समयके भाषण में उन्होंने कहा, "दक्षिण आफ्रिकामें आवश्यकता गोरे लोगोंके देशको नहीं, गोरे भ्रातृमण्डलकी भी नहीं, बल्कि एक साम्राज्य भ्रातृमण्डल को है।"

१९०३ के द्वितीयांशमें घटनाओंने ब्रिटिश सद्भावके प्रति उनके मनमें सन्देह अंकुरित कर दिया। किन्तु धैर्यपूर्वक निवेदन करने की पद्धतिसे निष्क्रिय प्रतिरोध और सक्रिय सत्याग्रह अब भी दूर था।


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