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आठ

सामने पेश किया। सोमनाथ महाराज और दादा उस्मानको परवाना देनेसे इनकार करने वाले दो प्रमुख मामलों की उन्होंने खुद पैरवी की ; किन्तु वे दोनों में असफल हुए ।

अधिकारियों के सामने प्रायः मामले पेश करने के अतिरिक्त गांधीजीने इंडियन ओपिनियन के स्तम्भोंमें दक्षिण आफ्रिकी उपनिवेशोंमें परवाना देनेकी नीतिकी आलोचना करते हुए अनेक लेख लिखे। उन्होंने श्री चेम्बरलेनकी आलोचना की कि वे दक्षिण आफ्रिकामें औपनिवेशिक नीतिका, चाहे वह ब्रिटिश परम्पराओंका स्पष्ट भंग भी करे, विरोध करना नहीं चाहते (१०-१-१९०३ )। विक्रेता परवाना अधिनियम पास होनेके छ: वर्ष बाद तक और विशेषतः ट्रान्सवाल और ऑरेंज रिवर कालोनीके ब्रिटिश-सत्ताके अन्तर्गत आनेके बाद उसके दुष्प्रयोग से, उनकी यह धारणा हुई कि 'यह नेटालके ब्रिटिश भारतीयोंके लिए दूसरे जीवन-संघर्षका शायद आरम्भ-मात्र हो।'

प्रवास, भारतीयोंके सामने दूसरी बड़ी समस्या थी। जहाज-यात्राका पास और भारतीय आगन्तुकोंपर लगाये जानेवाले शुल्क जैसे कुछ अपेक्षाकृत छोटे प्रतिबन्धोंको गांधीजी लिख- लिखाकर दूर करा सके थे, या उनमें सुधार करा सके थे। किन्तु तत्कालीन प्रवासी कानूनोंमें संशोधनोंके द्वारा भारतीय प्रवासियों पर प्राय: गंभीर प्रतिबन्ध लादे जाते थे। केप उपनिवेशके प्रवास-कानून अपेक्षाकृत ज्यादा उदारतापूर्ण थे और गांधीजी नेटालमें ऐसे ही कानून मंजूर करनेके लिए तैयार थे।

ट्रान्सवाल सरकारको पृथक्करण-नीति, जिसने भारतीयोंको बस्तियों और बाजारों में सीमित करने के आग्रहपूर्ण प्रयत्नका रूप ले लिया था, भारतीयोंकी अन्य गंभीर समस्या थी। ट्रान्स- वालके सर्वोच्च न्यायालयके इस फैसले ने, कि कानून ३, १८८५ के अन्तर्गत सरकार भारतीयोंको बस्तियों में रहने और व्यापार करने पर बाध्य कर सकती है, गांधीजीको बहुत बेचैन कर दिया और इस विषयको लेकर उन्होंने अधिकारियों, ब्रिटिश मित्रों, इंडिया और वाइसरायको भी तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसको अनेक निवेदन भेजे। चेम्बरलेन और जोहानिसबर्गके ब्रिटिश एजेंट को लिखे गये पत्रोंके अतिरिक्त ये प्रार्थनापत्र इस खण्डमें हैं। यूरोपीयों द्वारा प्रार्थनापत्र (अप्रैल १९०३) इस बातका उदाहरण है कि बस्ती-सूचनाके विरुद्ध गांधीजीने समझदार यूरोपीय-मत को किस प्रकार गति दी थी।

डर्बनके महापौरने जब ट्रान्सवाल बस्ती-कानून और बाजार-सूचनाके अनुसरणपर कानूनको भारतीयोंके खिलाफ सख्त बनाना चाहा तब गांधीजीने इसे "नेटालमें पुराने घृणित कानूनोंको दाखिल करनेका एक असामयिक प्रयत्न कहकर इसकी निन्दा की (इंडियन ओपिनियन, ४--६-१९०३) । केप कालोनीके ऐसे ही एक कानूनकी गांधीजीने विरोधपूर्ण टीका की; किन्तु साथ ही उपनिवेशके भारतीयोंसे भीड़भाड़ और गन्दगीसे बचनेकी प्रार्थना की (इंडियन ओपिनियन, १६-७-१९०३)।

इस अवधिमें भारतीय गिरमिटिया मजदूर बड़ी संख्यामें अनेक अड़चनें और प्रतिबन्ध सहते रहे। गांधीजीने घोषित किया कि यूरोपीयोंकी इच्छाके विरुद्ध गिरमिटिया मजदूरोंका प्रवास नहीं होना चाहिए, किन्तु अनिवार्य वापसीकी शर्तके साथ गिरमिटिया मजदूरोंकी कोई भी प्रवास-योजना स्वीकार नहीं की जानी चाहिए (इंडियन ओपिनियन, ६-८-१९०३)। जब ट्रान्सवालके बड़े-बड़े खान-मालिकोंने २,००,००० चीनी मजदूरोंके आयातका प्रस्ताव रखा तब गांधीजीने मानवताके आधार पर इस प्रस्तावका विरोध किया और माँगकी कि पृथक् बाड़ोंमें निवास जैसी अमानवीय शर्ते लगाकर दक्षिण आफ्रिकाको गोरी कौम चीनियोंका अधःपतन न होने दे (इंडियन ओपिनियन, २४-९-१९०३)।


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