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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मार्गमें डर्बनसे गुजरे तो उसे २५ पौंड जमा करनेपर और अगर वह ज्यादासे ज्यादा छः सप्ताहतक नेटालमें ठहरना चाहे तो १० पौंड जमा करने पर परवाना दिया जाता था। ऐसे प्रत्येक परवानेपर पहली बार एक पौंडका शुल्क लगाया गया। इस तरह, अगर कोई गरीब भारतीय भारत जाने के लिए डर्बनमें जहाजपर सवार होना चाहता तो वह न सिर्फ जमा करने के लिए २५ पौंड बल्कि सरकारको देने के लिए भी १ पौंड जुटाने के लिए लाचार था; जबकि उसे जहाजकी छत (डेक) पर भारततक यात्रा करनेका किराया ज्यादासे ज्यादा पाँच गिनी और, कभी-कभी तो, सिर्फ दो गिनी ही देना पड़ता था। यह शुल्क लगानेके, और नेटाल में ठहरनेवालों तथा डर्बनसे सिर्फ जहाजपर सवार होनेवालोंके परवानोंके लिए जमा की जानेवाली रकमोंमें जो अन्तर था उसके, विरोधमें अजियोंपर अजियाँ भेजी गईं। परन्तु सरकारने कहा कि १ पौंडका शुल्क आवश्यक है, क्योंकि परवाने एक रिआयतके रूपमें दिये जाते हैं और उनसे सरकारका काम बहुत बढ़ता है; और जहाजपर सवार होने के परवानोंके लिए ज्यादा रकम जमा करानेका आग्रह इसलिए रखा गया है कि सरकार उस रकमसे परवानेवालोंके लिए टिकट खरीदती है। परवानेवालोंने तो सरकारसे इस उपकारकी माँग कभी नहीं की और न कभी उसकी सराहना ही की। इसके विपरीत, अर्जदारोंका दावा था कि ऐसे परवानोंका दिया जाना बिलकुल आवश्यक है और यह जरूरत पूरी-पूरी उस' कठोरतासे पैदा हुई है, जिससे प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियम (इमिग्रेशन रजिस्ट्रेशन ऐक्ट) को कार्यान्वित किया जाता है। उनका कहना था कि कानून तो प्रवासको - अर्थात् स्थायी निवासके लिए आनेको, न कि अस्थायी रूपसे ठहरनेके लिए आनेको मना करता है और, इसलिए उन्होंने परवानोंकी प्रथाको रिआयत माननेसे आदरपूर्वक इनकार कर दिया।

परन्तु, जबतक सरकारपर बहुत दबाव नहीं डाला गया और जबतक विक्रेता-परवाना अधिनियम-सम्बन्धी प्रार्थनापत्रमें अर्जदारोंने यह धमकी नहीं दी कि वे ब्रिटिश अधिकारियोंको प्रार्थनापत्र भेजेंगे तबतक सरकार नहीं मानी। बादमें उसने १ पौंडका शुल्क उठा लिया और जहाजपर सवार होने के परवानोंकी २५ पौंड जमानतको घटाकर १० पौंड कर दिया। फलतः, जब ट्रान्सवालके भारतीयोंने राहतके लिए अपील की उस समय प्रत्येक यात्री या जहाजपर सवार होनेके परवानेपर १० पौंड शुल्क वसूल किया जाता था। (इस तरह, एक दूकानदारको जिसके, मान लीजिए, पाँच नौकर है, न सिर्फ अपना सारा माल पीछे छोड़ देना पड़ता, न सिर्फ लम्बे युद्धके दौरानमें भरण-पोषणका प्रबन्ध करना पड़ता -- सो भी, किसी व्यापारकी संभावनाके बिना और न सिर्फ यात्रा तथा फुटकर खर्चके लिए धन जुटाना पड़ता, बल्कि आतंकके समयमें, ट्रान्स- वाल छोड़ने के पहले, सरकारी खजाने में जमा करने के लिए ६० पौंड भी पास रख लेने पड़ते जो घोर मुसीबतके समय असम्भवप्राय हो सकता है)। यह ध्यान देने योग्य बात है कि ये परवाने -यद्यपि हमें स्वीकार करना चाहिए कि ये अर्जी देनेपर बिना किसी कठिनाईके दे दिये जाते हैं --देना-न-देना उन अफसरोंके इच्छाधीन है, जो इन्हें देनेके लिए नियुक्त किये गये है। सम्बद्ध भारतीयोंने तो सिर्फ यह मांग की थी कि १० पौंडका शुल्क मुल्तवी कर दिया जाये और सिर्फ संकट-कालमें उन्हें नेटालमें प्रवेश करने तथा रहने की अनुमति दी जाये। सरकारने पहले-पहल उसका जो रूखा उत्तर दिया उससे न सिर्फ जोहानिसबर्गके भारतीयोंको, बल्कि न्याय- बुद्धिवाले अनेक अंग्रेजोंको भी धक्का पहुँचा । मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश उप-राजप्रतिनिधि बहुत नाराज थे। बोअरोंके पत्र स्टैंडर्ड ऐंड डिगर्स न्यजने एक धज्जियाँ उड़ा देनेवाले लेखमें नेटालकी हँसी उड़ाई थी और साम्राज्य-सरकारके ट्रान्सवालको डचेतर यूरोपीयोंके प्रति न्याय करनेके लिए दबाने और नेटालको ब्रिटिश भारतीयोंके प्रति जैसा चाहे वैसा व्यवहार करने देने में जो विसंगति है,

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