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दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय

सिर्फ भारतीय नहीं आ सके, और सिर्फ वे ही न आयें। उन्होंने कुछ राहत पानेके खयालसे सरकारसे अपील की। उन्होंने सुझाया कि उपर्युक्त कानूनके अन्तर्गत स्वीकार किये गये कठोर नियमोंका कुछ हिस्सा मुल्तवी कर दिया जाये; और यह माँग की कि संकट-कालमें उन्हें नेटालमें ठहरने दिया जाये। पहले-पहल तो नेटाल-सरकारने राहत देनेसे साफ इनकार कर दिया; बादमें उसने कहा कि अगर युद्ध छिड़ा तो वह मानवीय भावनासे प्रेरित होकर मानवताके काम करेगी। भारतीयोंने जोहानिसबर्ग में ब्रिटिश प्रतिनिधिसे भी प्रार्थना की थी। और, कहना ही होगा, वे मौकेपर काम आये और उन्होंने योग्य अधिकारियोंके सामने प्रश्नका साम्राज्यिक पहलू बहुत जोरोंके साथ पेश किया। इससे अभीष्ट राहत मिल गई।

नेटालने जो हास्यास्पद और अ-ब्रिटिश रुख ग्रहण किया था उसे भली भांति समझने के लिए उपर्युक्त नियमोंके बारेमें कुछ जान लेना जरूरी है। प्रवासी-प्रतिबन्धक विधेयकको पेश करते समय नेटालके मन्त्रियोंने कहा था कि उपनिवेशमें पहलेसे हो बसे हुए भारतीयोंको असुविधामें डालनेका उनका कोई इरादा नहीं है। परन्तु, जैसे ही विधेयक अधिनियमके रूपमें परिणत हुआ, सरकारने विपथ होकर भी विभिन्न जहाज-कम्पनियोंको सूचनाएँ भेजीं, और उन्हें बताया कि यदि वे भारतीय यात्रियोंको लाई तो उन्हें क्या दण्ड भोगना होगा। स्वाभाविक था कि इसका जहाज कम्पनियोंने यह अर्थ लगाया कि उन्हें किसी भी भारतीय यात्रीको नहीं लाना है। इस दृष्टिसे, यह आवश्यक मालूम हुआ कि जो भारतीय उक्त कानूनके अन्तर्गत उपनिवेशोंमें आनेके हकदार थे, उन्हें कुछ राहत दी जाये। इसलिए सरकारने "अधिवास प्रमाणपत्र" (सार्टि- फिकेट्स ऑफ़ डोमिसाइल) कहलानेवाले प्रमाणपत्र जारी किये। ये उन लोगोंको दिये जाते थे जिनके सम्बन्धमें प्रमाण पेश किया जा सके कि वे पहले उपनिवेशमें रहते थे। यहाँ यह बता देना अनुचित न होगा कि "अधिवास' शब्दकी व्याख्या जितनी हो सकी उतनी संकुचित कर दी गई है। इससे अब, व्यावहारिक रूपमें, प्रमाणपत्र चाहनेवाले भारतीयको इस आशयके दो हलफ- नामे पेश करने पड़ते हैं कि वह कमसे कम दो वर्षसे उपनिवेशमें कोई स्थायी व्यापार कर रहा है। खुद कानून में इस पाबन्दीके लिए कोई विधान नहीं है। ये प्रमाणपत्र खजाने में ढाई शिलिंग (आधा क्राउन) शुल्क जमा करनेपर दिये जाते हैं। परन्तु पाठक आसानीसे कल्पना कर लेंगे कि जिस गरीब भारतीयको यह साबित करना है कि वह कानूनके अमलसे बरी है, उसे न सिर्फ आधा क्राउन देना पड़ता है, बल्कि हलफनामा बनानेवाले वकीलों आदिका शुल्क भी चुकाना पड़ता है।

इस सुविधासे अगर इसे सुविधा कहा जा सके तो सिर्फ वे भारतीय नेटालका टिकट पाने में समर्थ हुए, जो पहले नेटालके बाशिन्दे थे। परन्तु नेटालवासी भारतीयोंके वे मित्र, रिश्तेदार या ग्राहक क्या करते, जो थोड़े ही दिनोंके लिए नेटाल आना चाहते और, इसलिए, यहाँ बसने के इच्छुक नहीं थे? भारतीय अधिवासियोंकी सहूलियतके लिए ऐसी अस्थायी अनुमतिकी पूरी-पूरी जरूरत थी। जो दक्षिण आफ्रिका के अन्य भागोंसे आवश्यक कार्यवश नेटाल आना चाहते थे उनकी ओरसे कुछ आवेदनपत्र सरकारको भेजे गये थे। और कुछ कठिनाईके बाद इस शर्तपर अनुमति दे दी गई कि उनकी यथोचित वापसीके लिए ५० पौंड तक की जमानत जमा की जाये : इस प्रकारको अनुमति देने में जो त्रासदायक देरी होती थी और ऐसी भारी जमानत मांगी जाती थी कि लोग जमा ही न कर सकें, उसके खिलाफ बार-बार शिकायतें और चीख-पुकार होती थी। कुछ बाकायदा राहतके लिए अजियों दी गई और जब कानून पास होनेके बाद एक वर्षसे भी ज्यादा बीत गया तब सरकारने नियम बनाये, जिनसे अभीष्ट सन्तोष मिलने के बजाय, जोरोंकी निराशा पैदा हुई । अगर कोई व्यक्ति, मान लीजिए जोहानिसबर्गसे, भारत जानेके


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