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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

था। उसे लौट जानेका आदेश दिया गया। इसी बीच, एक भारतीय सज्जनने जिनका मुंशी उक्त जहाजमें था, पोर्तुगीज़ अधिकारियोंसे भेंट करके उन्हें राजी कर लिया कि उसे उतरने दिया जाये। कहा जाता है कि उसको लानेके लिए सरकारकी जहाज़ खींचनेवाली नौका खास तौरसे भेजी गई। यह सचमुच बड़ी मनोरंजक बात है; कसर इतनी ही है कि यह बहुत सन्ताप- जनक भी है। इससे मालूम होता है कि पोर्तुगीज़ लोग भारतीयोंके प्रति रागद्वेषसे मुक्त हैं; और यह भी पता चलता है कि दुर्बलताके समयमें वे अन्याय कर सकते हैं।

यह दुर्भाग्यपूर्ण दशा है, दक्षिण आफ्रिकामें बेचारे भारतीयोंकी; और इसका मुख्य कारण है, नेटालकी भारतीय-विरोधी नीति। यदि प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियम और सूतक-अधिनियम (यह भी वास्तवमें भारतीय-विरोधी अधिनियम ही है) न होते, तो भारतीय यात्रियोंको लानेवाले सारेके सारे जहाजोंका बिना यह खयाल किये एकदम वापस कर दिया जाना कि भारतीयोपर इसका क्या असर पड़ेगा, असम्भव होता। फिर भी मुझे लगता है कि स्थिति बिलकुल ही असाध्य नहीं है। भारतीय प्रश्नके परे, नेटालने निस्सन्देह, वर्तमान संकटका ठीक-ठीक मुकाबला किया है - यहाँतक कि श्री चेम्बरलेनने अपने हालके महान् भाषणमें उपनिवेशकी प्रशंसा की है, जिसका वह योग्य पात्र था। स्वयंसेवक दृढ़ताके साथ साम्राज्यके पक्षमें लड़ रहे हैं । मन्त्रियोंने अपना पूरा बल साम्राज्य सरकारको प्रदान किया है। उपनिवेशके मुख्य नगरों-- न्यूकैसिल, चार्ल्सटाउन और डंडीको कमसे कम अवधिकी सूचनापर बिलकुल खाली करना था; और ब्रिटिशोंने, जिनमें ब्रिटिश भारतीय भी शामिल थे ही, स्थितिको महसूस किया और अपना सब माल-मत्ता छोड़कर मूक समर्पण-भावसे इन स्थानोंको छोड़ दिया। इनमें व्यापारी तथा अन्य सभी लोग शामिल थे। यह सब राज-सिंहासनके प्रति गहरी निष्ठा-भक्तिका द्योतक है। इसलिए, अगर यूरोपीय उपनिवेशियोंको सिर्फ इतना समझा दिया जाये कि जबतक भारतीयोंके प्रति न्याय नहीं किया जाता तबतक उनकी निष्ठा-भक्ति अधूरी ही रहेगी, तो वे तदनुसार कार्य करने में चूकेंगे नहीं। साम्राज्यमें एकता की लहरके चिह्न दिखलाई पड़ रहे हैं- इसमें कोई भूल नहीं। वर्तमान युद्ध पूर्णतः डचेतर यूरोपीयोंके हितका है। उनकी यातनाएँ भारतीयोंकी यातनाओंकी तुलनामें नगण्य ठहरती हैं। जो स्वयंसेवक सम्राज्ञीके पक्षमें लड़नेके लिए रणभूमिपर गये है, उनमें से अधिकतर वे है, जिन्होंने १८९७ में डर्बनके भारतीय-विरोधी प्रदर्शनमें, जो अब काफी कुख्यात हो चुका है, प्रमुख भाग लिया था। कुछ दिन पहले अंग्रेजी बोलनेवाले कुछ स्थानीय भारतीयोंने एक सभा करके निश्चय किया था कि चूंकि वे ब्रिटिश प्रजा है और इस हैसियतसे अधिकारोंकी माँग करते हैं, इसलिए उन्हें अपने घरेलू मत-भेदको भुला देना चाहिए और, युद्धके न्यायान्यायपर उनका मत कुछ भी हो, इस संकटके समय रणभूमिपर कुछ सेवा करनी चाहिए --भले ही वह सेवा कितनी ही छोटी क्यों न हो, भले ही घायलोंको स्वयं- सेवक शिविरमें पहुँचानेका काम ही क्यों न करना पड़े। इन उत्साही युवकोंमें से अधिकतर मुंशी है, सुख-सुविधामें पले है और कठिन परिश्रम करनेके बिलकुल आदी नहीं हैं। उन्होंने सरकार या साम्राज्य अधिकारियोंको अपनी सेवाएँ बिना वेतन और बिना शर्तके देनेका प्रस्ताव किया है। उन्होंने कहा है कि हम हथियार चलाना नहीं जानते और अगर हम रणभूमिपर कोई काम कर सकें-- चाहे वह निचले दर्जेको टहल ही क्यों न हो- तो इसे एक विशेषा- धिकार मानेंगे। जिनको जरूरत पड़े उनके परिवारोंका पालन-पोषण करनेके लिए भारतीय व्यापारी आगे आ गये हैं। सरकारने बड़ा शिष्ट उत्तर देते हुए कहा है कि अगर अवसर आया तो वह प्रस्तावित सेवाओंका लाभ उठायेगी।

मुझे लगता है कि प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियमका अध्ययन करनेका कष्ट न तो भारतीय जनताने किया और न जहाज-कम्पनियोंने ही। क्योंकि, सरकारकी उपर्युक्त सूचनाके बावजूद,


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