कम्पनियाँ भारतीय यात्रियोंको लेनेसे ही इनकार करें, इसका कोई कारण मौजूद नहीं है। वे ऐसे व्यक्तियोंको बिना किसी जोखिमके ले सकती हैं, जो अंग्रेजी लिखना-पढ़ना काफी अच्छी तरह जानते हैं। और किन्हीं ऐसे भारतीय यात्रियोंको लेने में भी कोई पसोपेश नहीं होना चाहिए, जो इस आशयका वादा करें और जरूरत हो तो रुपया भी जमा कर दें कि अगर उन्हें नेटालमें उतरने न दिया गया तो वे अपने खर्चसे वापस आ जायेंगे या आगेके बन्दरगाहमें उतर जायेंगे। हमारी महान कम्पनियोंको खुद ही गरीब भारतीय यात्रियोंको ऐसी सब सहूलियतें देना चाहिए, जो उनकी शक्तिमें हों; या फिर, व्यापार संघ (चेम्बर्स ऑफ कामर्स) जैसी सार्वजनिक संस्थाओंको, जिनके क्षेत्रमें ये बातें खास तौरसे आती हैं, उनसे ऐसा कराना चाहिए। मुझे भरोसा है कि वे इस सुझावपर सहानुभूतिके साथ विचार करेंगे।
[अंग्रेजीसे]
टाइम्स ऑफ इंडिया (साप्ताहिक संस्करण), ९-१२-१८९९।
५७. पत्र : विलियम पामरको
[डर्बन
नवम्बर १३, १८९९ के बाद]
प्रिय श्री पामर,
आपके कृपापूर्ण पत्रके लिए बहुत धन्यवाद । पत्रसे मुझे आश्चर्य हुआ है।[१]
अगर सम्भव हो तो मैं उन महिलाओंके, जो चन्दा इकट्ठा करने गई थीं, और उन "अरबों" के, जिन्होंने सहायता देने से इनकार किया, नाम जानना चाहता हूँ।
बहुत सम्भव है कि वे लोग उन महिलाओंको या निधिके सच्चे उद्देश्यको न जानते हों।
जब भारतीयोंने रणभूमिपर सक्रिय सहायता करने के लिए साम्राज्य-अधिकारियोंके सामने अपनी सेवाएँ प्रस्तुत की, उसके पहले मैं श्री जेमिसनके पास गया था और मैंने पूछा था कि ऐसा करना उचित है या नहीं। वे, स्वयंसेवकोंके हथियार चलाने में असमर्थ होनेके कारण, ऐसा करनेकी सलाह देनेके अनिच्छुक मालूम पड़े; परन्तु उन्होंने आपके पत्रमें उल्लिखित निधिमें चन्दा देनेका सुझाव दिया। तबसे मैं बराबर सोचता आ रहा हूँ कि एक छोटी-सी निधि एकत्र करनेके लिए प्रमुख भारतीयोंको राजी कर लिया जाये। परन्तु, जैसा कि आप जानते हैं, सेवाएँ पेश कर दी गई है। इसमें एक शर्त यह है कि सक्रिय सेवाके दिनोंमें स्वयंसेवकोंके परिवारोंका भरण-पोषण किया जाये। इसके लिए जारी की गई निधिके और भारतीय व्यापारियोंपर पड़े हजारों भारतीय शरणार्थियोंके आर्थिक भारसे, व्यापारियोंके लिए विभिन्न निधियोंमें चन्दा देने के सम्बन्धमें विवेकसे काम लेना आवश्यक हो गया है।
फिर भी मैं इस निधिकी ओर भारतीयोंका ध्यान अधिक व्यापक रूपमें खींचनेके मौकेकी राह देख रहा हूँ।
- ↑ डर्बन महिला देशभक्त संघ (डबैन वीमेन्स पैट्रिआटिक लीग) के कोषाध्यक्ष श्री विलियम पामरने १३ नवम्बर, १८९९ को गांधीजीको एक पत्र लिखकर शिकायत की थी कि "कुलियों" ने तो सड़फ-सड़क घूमकर एकत्र की जानेवाली निधिमें तीन-तीन पेनी दान दिया, परन्तु अरबों" (एशियाई व्यापारियों) ने "कोई भी सहायता देनेसे इनकार कर दिया है।"