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८२. भारतीय आहत-सहायक दल'
डर्बन
 
अप्रैल १८, [१९००]
 

बोअर-युद्धका जो विवरण दैनिक पत्रोंमें प्रतिदिन प्रकाशित होता रहता है उसे पढ़ते हुए आपका ध्यान शायद इस युद्ध में भारतीय लोगों द्वारा किये गये उस कामपर तो गया ही होगा जिसका समाचारपत्रोंने तारीखवार उल्लेख कर दिया है। परन्तु मैं जानता हूँ कि समा- चारपत्र दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंके कामका पूरा विवरण प्रकाशित नहीं कर सके। मुझे यह बतलानेकी आवश्यकता नहीं कि युद्धकी घोषणा होते ही भारतीयोंने, युद्धके औचित्यानीचित्यके विषयमें अपने मतका विचार किये बिना, इस संकट-कालमें अपने तुच्छ सामर्थ्यके अनुसार ब्रिटिश सरकारकी सहायता करनेका निश्चय कर लिया था। इससे मतभेद एक भी भारतीयका नहीं था। इस भावनाका फल यह हुआ कि तत्काल ही डर्बनके अंग्रेजी बोल सकनेवाले भारतीयोंकी एक सभा बुलाई गई। उसमें हाजिरी बहुत ही अच्छी थी, और जितने आदमियोंके लिए सम्भव था उतनोंने वहीं और उसी समय इस आशयकी घोषणापर हस्ताक्षर कर दिये कि हम अपनी सेवा, बिना किसी शर्त और तनख्वाहके, सैनिक अधिकारियोंके सुपुर्द करते हैं; वे हमें जिस लायक समझें वह काम हमसे ले लें। घोषणामें रण-क्षेत्रके चिकित्सालय और रसद-विभागका जिक्र विशेष रूपसे करके यह भी लिख दिया गया था कि हम शस्त्र चलाना नहीं जानते ।

यह सहायता अन्तमें स्वीकार कर ली गई और सैनिक अधिकारियोंकी सलाहसे नेटाल में एक भारतीय आहत-सहायक दलका संगठन कर दिया गया। इस दल में घायलोंको लाने-ले जाने- वाले अधिकतर गिरमिटिया भारतीय थे, जिन्हें, गिरमिटिया-संरक्षक विभाग या ऊपर निर्दिष्ट स्वयंसेवकोंकी मारफत, नेटालके जायदादवालोंने दिया था। वाहकोंके नायक ये स्वयंसेवक ही थे। इन भारतीयोंको रण-क्षेत्रमें जाने या न जानेकी स्वतन्त्रता थी। इस प्रकार, कोलेजोकी लड़ाईके बाद लगभग १,००० भारतीय वाहकों और ३० नायकोंने घायलोंको लाने-ले जानेका काम किया था (वस्तुतः इतनेसे अधिक नायकोंकी आवश्यकता नहीं थी)। उनके कठिन कामकी सभी सम्बद्ध लोगोंने प्रशंसा की थी, और घायल सिपाही तो उनकी सेवासे परम सन्तुष्ट हुए इस दलके यूरोपीय सुपरिटेंडेंट और इसके सम्पर्क में आनेवाले अन्य यूरोपीयोंने निःसंकोच माना था कि नायकोंके बिना घायलोंको लाने-लेजानेका यह काम सन्तोषजनक रीतिसे नहीं हो सकता इस दलका संगठन, कोलेजोके रास्ते लेडीस्मिथतक बढ़नेके लिए किया गया था, परन्तु जब सेनाको पीछे हटना पड़ा तब यह तोड़ दिया गया; और जब जनरल बुलरने स्पिओन कोपके रास्ते बलपूर्वक बढ़ जाने का प्रयत्न किया तब इसका पुनर्गठन कर लिया गया था।

इस बार काम सम्भवत: अधिक कड़ा और निश्चय ही अधिक जोखिमका था। घोषणा तो यह की गई थी कि भारतीयोंको गोलाबारीकी सीमासे बाहर काम करना होगा, परन्तु प्रत्यक्ष काम इसके विपरीत हुआ। उन्हें घायलोंको गोलाबारीकी सीमासे ही लाना पड़ता था और कभी कभी तो उनसे सौ गजके अन्दर ही बम आकर गिरते थे । बेशक, इस सबका अनिवार्य कारण स्पिओन

१. गांधीजीका यह पत्र "भारतीय संवाददाता द्वारा प्रेषित" रूपमें इंडिया में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने इसका पूरा विवरण टाइम्स ऑफ़ इंडिया (साप्ताहिक संस्करण) को पहले ही भेज दिया था । देखिए " नेटालमें भारतीय आहत-सहायक दल," १४-३-१९०० के बाद ।


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