महाशय,
आप सभी जानते हैं कि भारतीयोंके लिए जो अस्पताल डर्बनमें खोला गया है, उसे आज लगभग डेढ़ वर्ष हो गया है। उसमें डॉक्टर बूथ और एक अन्य डॉक्टर भाई मुफ्त काम करते हैं । अस्पताल खुलने के पहले डर्बनमें एक सभा हुई थी। उसमें यह तय हुआ था कि अस्पतालके किराया खातेमें प्रतिवर्ष ८५ पौंड भारतीय दें। यह निश्चय दो वर्ष के लिए किया गया था। तुरन्त ही चन्दा किया गया, जिसमें ६१ पौंड वसूल हो गये। २४ पौंड वसूल करनेको बाकी हैं। परन्तु इतने से तो खर्च पूरा होनेवाला नहीं है। भाड़ेके ९ महीनोंसे ज्यादाके पैसे चढ़ गये हैं। डर्बनमें बहुत चन्दा उगाहा जा चुका है। बाकी पैसेका बोझ भी अकेले डर्बनपर डालना ठीक नहीं माना जायेगा, इसलिए यह पत्र लिखा है।
अस्पतालकी पहली छमाही कार्यवाही इसके साथ है। उससे आप देखेंगे कि अस्पताल कितने कामका है।
उसमें बहुत खराब हालतमें गई हुई मद्रासी स्त्रियाँ अच्छी होकर निकली है। गुजरातियोंको भी आश्रय उसमें मिला है। कोई कीम बाकी नहीं रही। हमेशा सैकड़ों लोग वहाँसे मुफ्त दवा ले जाते हैं। और निधिकी पेटी रखी है, उसमें मरीजोंसे जितना बनता है उतना डाल देते हैं, जिनसे नहीं बनता उनको भी दवा मिलती है। इस पेटीसे जो पैसा निकलता है उससे दवाएं ली जाती है। जो घटता है उसे पादरी लोग पूरा कर देते हैं।
अगर हमसे मदद न हो सके तो अस्पताल बन्द करना पड़ेगा। दो डॉक्टर मुफ्त काम करते हैं, इसलिए थोड़े खर्च में अस्पताल चल सकता है और बहुत-से गरीबोंको फायदा होता है। एक अन्धा, अपंग गुजराती बूढ़ा था। उसे बहुत दिनोंतक अस्पतालमें मुफ्त रखा गया था।
ऐसे काममें आपसे जितना बने उतना आपको देना ही चाहिए। और दूसरोंके पाससे भी वसूल करके भेजना चाहिए। जो भी पैसा मिलेगा उसकी रसीद भेजी जायेगी। आशा है, आप पूरी कोशिश करेंगे।
मूल गुजराती प्रतिकी फोटो-नकल (एस० एन० ३७२५) से।
१. एक परिपत्र।
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