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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

हम प्राप्त करना चाहते हैं । उस दिन आपसे मैंने याचना की थी और आज फिर कर रहा हूँ कि, आप विश्वास रखें, हमारे लिए ये सिर्फ तकियाकलाम नहीं है, बल्कि इन तमाम पिछले वर्षोंमें हमने इन आदर्शोंके अनुसार चलनेका प्रयत्न किया है। वर्तमान युद्धमें स्थानिक भारतीयोंका योगदान शायद इस कार्यसरणीका सबसे अच्छा उदाहरण है ।

आप जानते ही हैं, जब सन् १८९९ में बोअरोंने अन्तिम चुनौती दी, उस समय ब्रिटिश सरकार तैयार नहीं थी। ब्रिटिश सरकारका जवाब मिलते ही अपनी पहलेसे निश्चित योजनाके अनुसार बोअर नेटालकी सीमाको लाँघकर अन्दर घुस आये । सर डब्ल्यू० पेन सिमन्सने जानको झोंककर दुश्मनकी फौजोंको तालाना टेकड़ीके पास कुछ समयके लिए रोका। और सर जॉर्ज व्हाइट[१]ने अपने १०,००० वीरोंके साथ लेडीस्मिथमें अपने आपको घिर जाने दिया । ये घटनाएँ इस तरह अनपेक्षित और आश्चर्यजनक रीतिसे और एकके बाद एक ऐसी तेजीसे घटीं कि लोगोंको मुड़कर देखने और विचार करनेका समय नहीं मिला। मेफ़िकिंग और किम्बरले पर एक साथ ही घेरा पड़ गया। आधा नेटाल बोअरोंके हाथोंमें था। और हम अक्सर सुनते थे कि बोअर मैरित्सबर्ग लेकर डर्बनपर कब्जा करनेवाले हैं। परन्तु लोगोंको शायद आश्चर्य होगा कि सर जॉर्ज और उनकी फौजने अपने आपको घिरवाकर नेटालको बचा लिया और इस तरह बोअर-सेनापति और उसकी सेनाकी उत्तम टुकड़ीको वहीं उलझा रखा। यह थी उस उपनिवेशको ब्रिटिश भारतकी सहायता ।

नेटालकी जनताने इन तमाम घटनाओंका जिस शान्ति और दृढ़तासे मुकाबला किया उसकी जितनी तारीफ की जाये, थोड़ी है। और इससे ब्रिटिश शक्तिका रहस्य प्रकट होता है। कोई हलचल नहीं थी । व्यापार-व्यवसाय इस तरह चल रहा था मानो कुछ हुआ ही नहीं। नेटालकी सरकार जरा भी विचलित नहीं हुई थी । यद्यपि खजाना लगभग खाली था, तथापि नौकरोंको बराबर तनख्वाहें दी जा रही थीं। अंग्रेजी जीवनके साधारण शिष्टाचारोंका पालन किया जा रहा था । खाकी वर्दीवाले पुरुषोंकी इतनी बड़ी उपस्थिति और बन्दरगाह्पर असाधारण हलचल न होती तो आपको यह खयाल भी नहीं हो सकता था कि डर्बनके हाथसे निकल जानेका खतरा सरपर है ।

स्वयंसेवकोंकी मांग हुई और पुकारके २४ घण्टेके अन्दर डर्बन अपने सर्वोत्तम पुत्रोंसे खाली हो गया । सवाल यह था कि ऐसे संकटकालमें उपनिवेशमें रहनेवाले ५०,००० भारतीय क्या रुख धारण करें ? इसका उत्तर निश्चित उत्साहके रूपमें सामने आया । ब्रिटिश प्रजाजनोंके नाते हम विशेषाधिकार माँग रहे थे। अब उस हैसियतकी जिम्मेदारियां अदा करनेका समय आ गया । जिस नीतिका शुरूमें जिक्र किया जा चुका है उसपर अगर अमल करना है तो हमें स्थानीय मतभेद भुलाने ही होंगे। लड़ाई सही है या गलत, इस प्रश्नसे हमें कुछ मतलब नहीं था । इसका निर्णय करना बादशाहका काम था । इसी उद्देश्यके लिए निमन्त्रित एक बड़ी सभामें आपके देशभाइयोंने इस तरहके विचार प्रकट किये। उपनिवेशमें भारतीयोंके बारेमें अक्सर कहा जाता था कि यदि युद्ध होगा तो ये भारतीय गीदड़ोंकी तरह भाग जायेंगे। इस आरोपके जवाब देनेका अवसर आ पहुँचा। उस सभा में निश्चय किया गया कि तमाम उपस्थित लोग अपनी सेवाएँ सरकारको अर्पित कर दें और उससे कह दें कि लड़ाई में जो भी काम उनकी योग्यतानुसार उनको दिया जायेगा उसे वे बगैर किसी वेतनके करेंगे। सरकारने इन स्वयंसेवकोंको धन्यवाद देते हुए अपने जवाब में कहा कि अभी उनकी

  1. सर जॉर्ज व्हाइट पहले भारतीय सेनाके प्रधान सेनापति थे ।