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१६७. पत्र : दलपतराम भवानजी शुक्लको

[कलकत्ता]
जनवरी २५, १९०२

प्रिय शुक्ल,

मैं अगले मंगलको रंगून रवाना हो रहा हूँ ।

मैं एक तरहसे सफल हुआ हूँ । बंगाल व्यापार-संघ (चेम्बर ऑफ कॉमर्स)के अध्यक्षसे मिला था । उन्होंने इस मामले[१]में खुद दिलचस्पी ली और वाइसरायसे भेंटकी प्रार्थना की । वाइसरायने शिष्टमण्डलसे मिलनेके बजाय अत्यन्त सहानुभूतिपूर्ण उत्तर[२] दिया है। अध्यक्षने, जब भी जरूरी हो, एक स्मरणपत्र भेजनेका वचन भी दिया है।

मैंने भाषण भी दिये हैं।[३] नेताओंने निश्चय ही इस प्रश्नमें दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया है ।

मेरे घर जानेके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद । कृपया कभी-कभी वहाँ जाते रहें। ऐसा लगता है कि सभी लड़कोंको बारी-बारीसे बुखार आ रहा है ।

हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी

मूल अंग्रेजी प्रतिकी फोटो नकल (जी० एन० २३२८) से ।

१६८. कलकत्तेमें भाषण[४]

[ कलकत्ता
जनवरी २७, १९०२ ]

सभापतिजी और सज्जनो,

गत रविवारको समाप्त हुए सप्ताहमें मुझे अपने दक्षिण आफ्रिकाके अनुभव आपको सुनानेका सम्मान प्राप्त हुआ था । आपको याद होगा कि अपने भाषणमें मैंने बताया था कि वहाँ हमारे देश-भाइयोंने अपने पर लगी कानूनी बन्दिशोंके सम्बन्धमें जिस नीतिसे काम लिया है, उसका सार दो नीति-वचनोंमें बताया जा सकता है। वे वचन हैं: चाहे कितनी भी कीमत चुकानी पड़े, सत्यपर दृढ़ रहना और द्वेषको प्रेमसे जीतना । यह हमारा आदर्श है, जिसे

  1. दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंका प्रश्न ।
  2. उत्तर यह था कि वाइसराय व भारत सरकारके विचार कई बार ब्रिटिश सरकारके सामने जोरोंसे रखे जा चुके हैं और उपनिवेश-मन्त्रीके द्वारा ही कोशिशें करना उचित है। निर्णय आखिर उन्हें ही करना है, और उनकी सहानुभूतिफा आश्वासन मिल चुका है ( एस० एन० ३९३१ ) ।
  3. एक भाषण उन्होंने १९ जनवरीको एक सार्वजनिक सभामें दिया था ।
  4. अल्बर्ट हाल, कलकत्ताके इस दूसरे भाषणमें प्रमुख रूपसे बोअर युद्धमें भारतीय भारत सहायक दल द्वारा किये गये कार्यों पर प्रकाश डाला गया है।