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अभिनन्दनपत्र : चेम्बरलेनको

जहाँतक हम जान सके हैं, ऐसा है भारतीय विरोधी विधान, जो साम्राज्य-सरकारको भूतपूर्व गणराज्यसे विरासतमें मिला है। और [वह] अभीतक बरकरार है।

इन नियमों और उपनियमोंमें से कर्फ्यू, रेलयात्रा, पैदल-पटरी और किरायेकी गाड़ी-सम्बन्धी नियम यद्यपि युद्धके तुरन्त बाद कड़ाईके साथ लागू किये गये थे, तथापि बादको बहुत-कुछ ढीले कर दिये गये । परन्तु जबतक ये रद नहीं किये जाते तबतक किसी भी क्षण कड़ाईके साथ लागू किये जा सकते हैं। और, किसी भी अवस्थामें, भारतीय समाजको अनावश्यक अपमानका पात्र तो बना ही सकते हैं ।

जैसा सभी जानते हैं, भूतपूर्व बोअर सरकारने ये सारे भारतीय-विरोधी कानून दक्षिण आफ्रिका मूल निवासियोंके साथ हमारी गणना करनेके उद्देश्यसे बनाये थे । लंदन-समझौतेके बाद ही उस सरकारने "दक्षिण आफ्रिकी मूल निवासियों" की व्याख्यामें ब्रिटिश भारतीयोंको शामिल कर लिया था । ऐसी व्याख्या और उसपर आधारित व्यवहारके विरुद्ध स्वर्गीया सम्राज्ञीकी सरकारकी ओरसे लगातार आपत्ति की जाती रही। इसमें केवल एक बार दुर्भाग्यपूर्ण व्यतिक्रम हुआ, और वह भी गलतफहमी से ।

फिर इसमें ब्रिटिश सरकार हमारे पक्षमें दखल दे सकती है, इसका लाभप्रद भय लगातार बना रहा। नतीजा यह हुआ कि यद्यपि हमारे विरुद्ध मुख्य कानून १८८५[१] में पास हुआ था और हमें एक बड़ी दुविधा और अनिश्चयकी दशामें रहना पड़ा, फिर भी हममें से अधिकतर लोग इस अन्तिम प्रहारसे बचनेमें समर्थ रहे । परन्तु अब इन कानूनोंके गिर्द ऐसी कोई आश्वासनप्रद बातें नहीं रही हैं। एशियाई विभागका एकमात्र कर्तव्य हमपर प्रभाव डालनेवाले कानूनोंको लागू करना और यह बताना है कि उपनिवेशमें प्रवेश के लिए परवाने किन्हें दिये जायेंगे । अतः जहाँ यूरोपीयोंको, चाहे वे ब्रिटिश-प्रजा हों चाहे और कोई, व्यवहारतः माँगते ही प्रवासी-परवाने मिल जाते हैं, वहीं भारतीय शरणार्थियों को एशियाई पर्यवेक्षककी सेवामें प्रार्थनापत्र भेजने पड़ते हैं और वही यह निर्णय करता है कि वह केप, नेटाल, या डेलागोआ-बेके, जहाँका भी मामला हो, परवाना-अधिकारीको अमुक परवाना जारी करनेकी अनुमति दे अथवा न दे। और फिर, मानो इतना काफी न हो, भारतीय शरणार्थियोंसे अपेक्षा रखी जाती है कि वे अपने आगमनके बाद रिहायशी परवाने भी लें, यद्यपि ये परवाने अब शेष निवासियोंके लिए आवश्यक नहीं रहे हैं ।

यद्यपि ढीलेढाले बोअर-शासनमें बहुतेरे भारतीय व्यापारी, अधिकारियोंकी पूरी जानकारीमें, अपने परवानोंके लिए कुछ भी शुल्क दिये बिना व्यापार करते थे, तथापि जागरूक ब्रिटिश शासनमें तो ऐसी बात स्वभावतः ही असम्भव है ।

श्रीमानके सामने जब हमारी ओरसे प्रार्थनापत्र पेश किया गया था उस समय श्रीमानने कृपापूर्वक हमसे कहा था कि हमारी शिकायत निश्चय ही न्यायसंगत है और हमें श्रीमानकी सहानुभूति प्राप्त है । फिर भी, उस समय श्रीमान तत्कालीन दक्षिण आफ्रिकी सरकारसे मैत्रीपूर्ण निवेदन कर देनेसे ज्यादा कुछ करनेमें असमर्थ थे। इसके अलावा, जब युद्ध छिड़ा तब सरकारी तौरपर यह घोषणा कर दी गई कि ब्रिटिश भारतीयोंकी निर्योग्यताएँ युद्धका एक कारण हैं ।

इसलिए युद्धका अन्त होनेके साथ ही हमने सोचा था कि हमारी कठिनाइयोंका भी अन्त हो जायेगा। परन्तु दुर्भाग्यसे अभीतक यह आशा फलवती नहीं हुई। ये उल्लिखित कानून जो प्रत्यक्षतः अब्रिटिश हैं, अब सामान्यतः ब्रिटिश-नियमितताके साथ लागू किये जा रहे हैं। कर्फ्यू

  1. देखिए खण्ड १, पृष्ठ ३९२ ।