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चित्रका उजला पहलू

अधिक धनवान, सुखी और हर तरहसे शक्तिशाली बनें। ऐसी सूरतमें, और चूंकि कमसे-कम कुछ समयके लिए तो मनुष्यके सामने यही उद्देश्य प्रधान रहता है, अगर यूरोपीय समाज अपने जीवन क्षेत्रमें किसी प्रतिस्पर्धीको बिलकुल बर्दाश्त न करे, या कम बर्दाश्त करे, तो इसमें किसीको आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हमारी रायमें सारी परिस्थितिका रहस्य यही है । अगर दक्षिण आफ्रिकामें इतनी बड़ी संख्यामें रंगदार जातियाँ न होतीं तो, हमारा अनुमान है कि, हम यूरोपकी भाँति यहाँ भी गोरी जातियोंके बीच युद्ध होता देखते -- हमारा मतलब है, आर्थिक युद्धसे । इंग्लैंड अबतक खुले व्यापारका अकेला और बड़ा हामी रहा है । परन्तु आज उसीका एक प्रमुखतम व्यक्ति सौम्य प्रकारके संरक्षणकी ही सही, किन्तु संरक्षणकी बात करने लगा है। इसका भीतरी मतलब यही है कि वह विदेशोंकी प्रतिस्पर्धासे अपने देशको बचाना चाहता है। इस पहलूपर हम यह बतानेके लिए जोर दे रहे हैं कि हमें धीरजकी, और परमात्माको धन्यवाद देनेकी भी, कितनी जरूरत है धीरजकी इसलिए कि रंगभेदका कारण कितना गहरा है, यह शायद हम खुद मंजूर करना पसन्द नहीं करेंगे; और धन्यवादकी इसलिए कि परिस्थितिका कारण केवल रंग-विद्वेष नहीं बल्कि वे सुनिश्चित नियम भी हैं जो नये समाजोंका नियंत्रण करते हैं ।

परन्तु चित्रके उजले पहलूपर विचार करनेके लिए इससे भी अधिक जोरदार कारण हैं। क्या हम कभी भूल सकते हैं कि संकटके समय हमारी मदद माननीय दिवंगत श्री एस्कम्बने ही की थी ? हममेंसे बहुतसे भाई शायद यह भी नहीं जानते कि जब उन्होंने देखा कि विक्रेता-परवाना कानूनके कारण भारतीय व्यापारियोंकी बहुत भारी हानि हो रही है, तब उन्होंने अपना सारा वजन हमारे पक्षमें डाल दिया और वे हमें न्याय दिलाकर रहे जो कि वाजिब ही था । फिर लड़ाईके मैदानपर जानेवाले हमारे छोटे जत्थेको उत्साहके दो शब्द कहकर उन्होंने उसे अपना आशीर्वाद भी दिया था।[१] उनके वे शब्द अब इतिहासकी वस्तु बन गये हैं; क्योंकि सार्वजनिक रूपसे कहे हुए वही उनके अन्तिम शब्द थे । उसके बाद मृत्युने उन्हें हमारे बीचसे उठा लिया। उनका यह भाषण सच्ची साम्राज्यीय भावनासे ओत-प्रोत था । इसी प्रकारकी अनेक सुखद घटनाएँ हमारे पाठकोंको याद होंगी। सबसे अधिक याद रहनेवाली बात तो यह है कि सन् १९०० में जब सारा भारतवर्ष भयंकर अकालके पंजेमें फँसा हुआ था तब इस उपनिवेशने कितनी उदारतापूर्वक यहाँसे सहायता भेजी थी ।[२]

नेटालकी सीमाके उस पार नजर डालतेही केपकी विधान परिषदके सदस्य श्री गार्लिकपर हमारी नजर पड़ती है। उन्होंने देखा कि भारतीयोंके पक्षमें न्याय है और उसमें ईमानदारी भी है। वे तुरन्त ब्रिटिश भारतीयोंके शिष्ट-मण्डलके अग्रभागमें खड़े होकर उसका नेतृत्व करनेके लिए तैयार हो गये । ट्रान्सवालमें खुद लॉर्ड मिलनर हैं । उपनिवेशियोंके लिए सही रास्ता क्या हो सकता है, यह उन्होंने स्पष्ट कर दिया। अब अगर हमें यह शिकायत हो कि उसका अमल नहीं हो रहा है तो इसका कारण यह नहीं कि लॉर्ड मिलनरकी इच्छा नहीं है; बल्कि यह है कि वे अपने आपको लाचार पाते हैं । फिर श्री विलियम हॉस्केन हैं जो न्याय और सत्यके पक्षमें डटकर खड़े हो जाते हैं ।

इस प्रकार भारतीयोंके जीवनमें सुख देनेवाली ऐसी कितनी ही बातें गिनाई जा सकती हैं । परन्तु उपर्युक्त उदाहरण ही इतना सिद्ध करनेके लिए काफी है कि भविष्यमें आशा रखनेकी काफी गुंजाइश है । और समय पाकर जैसे-जैसे यूरोपीय समाज यहाँ पुराना होता जायेगा वैसे-वैसे

  1. देखिए "भारतीय आहत सहायक दल", दिसम्बर १३, १८९९ ।
  2. देखिए पृष्ठ १७९-८० ।