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नया कदम

कहते हैं कि भारतमें करोड़ों आदमी एकदम निरक्षर हैं। हमने जो उदार कसौटी बताई है उसके अनुसार भी वे यहाँ प्रवेश नहीं पा सकेंगे। अगर इस कसौटीको मंजूर कर लिया जाता है तो उसका वर्तमान रूप हटानेपर हमें कोई आपत्ति नहीं होगी --- बशर्ते कि भाषा-विषयक ज्ञानका स्तर प्राथमिकसे ऊपरका हो। अगर यह प्रयोग असफल हो और सरकार देखे कि हजारों लोग उपनिवेशमें प्रवेश पा सकते हैं तो शैक्षणिक योग्यतावाली धारामें परिवर्तन करनेमें कठिनाई नहीं हो सकती। हमारे सहयोगी नेटाल मर्क्युरीने लिखा है कि विधेयक पेश कर दिया गया, यह अच्छा हुआ । क्योंकि, इससे नेटाल-कानूनका केप-कानूनसे मेल बैठ जायेगा। दुर्भाग्यसे, नेटालने केपके कानूनका सभी बातोंमें अनुकरण नहीं किया है; क्योंकि केपका कानून पहलेसे बसे हुए लोगोंपर लागू नहीं होता। यही नहीं, वह समस्त दक्षिण आफ्रिकामें बसे हुए लोगोंको भी यह सहूलियत देता है, बशर्ते कि वे अपराधी न हों, अथवा अन्य किसी कारणसे निषेधके पात्र न हों। यह उचित भी है; क्योंकि अब समस्त दक्षिण आफ्रिका ब्रिटिश सत्ताके अधीन आ गया है। इसलिए उसके एक हिस्सेमें रहनेवालोंको दूसरे हिस्सोंमें जाने-आनेकी आजादी होनी ही चाहिए । नेटालके विधेयकमें 'निवासी' का अर्थ कमसे-कम तीन वर्षसे रहनेवाला किया गया है। हमारी रायमें यह अत्यन्त अन्यायपूर्ण है । सरकारकी हिदायत रही है कि जो यह सिद्ध कर सकें कि वे यहाँ दो वर्षसे रह रहे हैं, उन सबको यहाँके निवासी होनेका प्रमाणपत्र दे दिया जाये । समझमें नहीं आता कि यह अवधि बढ़ाकर तीन वर्ष क्यों की जा रही है ? हमारे खयालसे तो, लगातार दो वर्ष रहनेकी शर्त लगाना भी सख्ती होगी। गिरमिटिया मजदूर पाँच सालकी मियाद पूरी कर चुकनेपर भी इस उपनिवेशके निवासी नहीं माने जाते। इसपर हम यही कह सकते हैं कि इसमें कोई भी औचित्य नहीं है। इस उपनिवेशमें रहनेके लिए वे सबसे अधिक योग्य और सबसे अधिक कामके हैं। श्री एस्कम्बने ठीक ही कहा है कि इन लोगोंने बहुत तुच्छ पारिश्रमिकपर अपने जीवनके सबसे अधिक कीमती पाँच वर्ष दिये हैं, और गुलामोंकी सी हालतमें अपने दिन काटे हैं। ऐसे लोगोंको नागरिकताके बुनियादी अधिकारोंसे भी वंचित रखना अत्यन्त अनुचित है ।

इस विधेयकपर हमने जो आपत्तियाँ पेश की हैं, हम आशा करते हैं, सरकार उनपर गम्भीरतापूर्वक विचार करेगी। जैसा कि सरकारने स्वयं स्वीकार किया है, भारतीय समाज उपनिवेशसे इतने सौजन्यकी आशा तो जरूर कर सकता है । जहाँतक हमारा खयाल है, उसकी माँगें अधिक नहीं हैं । उसका रुख सदैव तर्कसंगत रहा है । और उसने बहुत आत्म-नियन्त्रणसे काम लिया है। इसलिए अगर हम उसकी तरफसे माँग करें कि उसकी सुनवाई सहानुभूतिपूर्वक होनी चाहिए, तो हम बहुत अधिक नहीं माँग रहे हैं ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २५–६-१९०३