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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

कभी कोई प्रयत्न किया भी जाता था तभी ब्रिटिश सरकारसे शिकायत कर दी जाती थी, और उसका फल तुरन्त निकल आता था ।

तीसरी बातके विषयमें, यदि मुक्त रखनेका अभिप्राय वही होता जो कि लॉर्ड मिलनरंका है, अर्थात् 'सब प्रकारके विशेष कानूनोंसे', तो निःसन्देह लाभ बहुत होता, परन्तु बाजार-सम्बन्धी सूचनाका इस अभिप्रायके साथ पूरा विरोध है। इसमें मुक्ति केवल निवासके बारेमें दी गई है । मजा यह है कि यदि सम्मानित ब्रिटिश भारतीय वर्षकी समाप्तिके पश्चात् भी नगरमें रहना चाहेंगे तो उन्हें विशेष रूपसे मुक्तिकी अनुमति प्राप्त करनी पड़ेगी और अधिकारियोंके सामने सिद्ध करना पड़ेगा कि "उन्हें साबुन लगाने की आदत है" और "वे फर्शपर नहीं सोते" इत्यादि । परन्तु नौकरी-पेशा भारतीयोंको कानूनन शहरमें रहनेका अधिकार है, उनके लिए कानूनमें विशेष अनुमति लेना आवश्यक नहीं रखा गया है। इस सम्बन्धमें कानूनकी धारा यह है: "सरकारको अधिकार होगा कि वह उनके निवासके लिए विशेष सड़कें, मुहल्ले और बस्तियाँ नियत कर दे। यह नियम अपने मालिकोंके साथ रहनेवाले नौकरोंपर लागू नहीं होगा । इस कारण यदि हजारों नहीं तो सैकड़ों भारतीय नौकर (क्योंकि घरेलू नौकरोंके तौरपर उन्हें बहुत पसन्द किया जाता है) मुक्तिके लिए प्रार्थनापत्र दिये बिना शहरमें ही रह सकेंगे; परन्तु मुट्ठीभर खुशहाल सम्मानित ब्रिटिश भारतीय, कष्टकर परीक्षाका अपमान सहे बिना, शहरमें नहीं रह सकेंगे। पिछले शासनमें ऐसी कोई मुक्तिकी अनुमति पानेकी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि तब अनिवार्य पृथक् निवासका नियम लागू नहीं किया गया था ।

इसलिए ब्रिटिश भारतीयोंका यह कथन अक्षरशः सत्य है कि इस समय एशियाई-विरोधी कानूनोंका प्रयोग अभूतपूर्व कठोरतासे किया जा रहा है।

डॉ० पोर्टरके प्रतिवेदनमें से लिये हुए एक उद्धरणके आधारपर अस्वच्छ ढंगसे रहनेका जो आक्षेप किया गया है, उसके विषयमें इंडियन ओपिनियनका संलग्न लेख अपनी बात आप सुनाये दे रहा है । यदि युद्धसे पहले ब्रिटिश भारतीयोंके विरुद्ध, तथ्योंसे सर्वथा अपुष्ट विद्वेषपूर्ण बयान दिये जाते थे, तो उनके विरुद्ध अब भी उसी विद्वेषसे काम लिया जा रहा है । डॉ० पोर्टरकी साक्षी भी निःसन्देह उसी प्रकारकी है।

अब एक बातका जिक्र और कर दूँ । कोई पन्द्रह वर्ष हुए, प्रिटोरियाके ब्रिटिश भारतीय मुसलमानोंने मस्जिद बनानेके लिए एक जमीन खरीदी थी। यह जमीन अभीतक विक्रेताके ही नाम चली आ रही है, क्योंकि बोअर-कानूनमें एशियाइयोंके लिए सरकार द्वारा पृथक् की गई बस्तियों या सड़कोंसे बाहर जमीनका मालिक होना निषिद्ध था । इस सम्बन्धमें युद्धसे पहले ब्रिटिश प्रतिनिधियोंसे कई बार प्रार्थना की गई थी, और जब युद्ध छिड़नेवाला था तब सर कनिंघम ग्रीनने ब्रिटिश भारतीयोंको विश्वास दिलाया था कि यदि युद्ध छिड़ ही गया तो उसके समाप्त हो जानेपर जमीनको खरीदारके नाम करवानेमें कोई कठिनाई नहीं होगी। परन्तु अब बार-बार प्रार्थना करनेपर भी सरकार इस सम्पत्तिको न्यासियोंके नाम दर्ज करनेसे इनकार कर रही है। मुस्लिम सम्प्रदायकी ओरसे हाजी हबीबने एक पत्र[१] उपनिवेश सचिवको भेजा है। इस जमीनका विक्रेता बहुत बूढ़ा आदमी है, और यदि कहीं दुर्भाग्यवश मालिकका नाम बदला जानेसे पहले ही उसका देहान्त हो गया तो ऐसी उलझनें पैदा हो जानेकी सम्भावना है कि उनसे यह सम्पत्ति हाथसे चली जायेगी। प्रिटोरियाके ब्रिटिश भारतीय मुसलमानोंके लिए यह सम्पत्ति बड़ी मूल्यवान है। इसी प्रकारकी कठिनाई जोहानिसबर्गमें वहाँकी मस्जिदके सम्बन्धमें महसूस की जा रही है, परन्तु यहाँ आवश्यकता

  1. देखिए "पत्र: उपनिवेश सचिवको”, अगस्त १, १९०३ ।