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नेटालका गौरव

है उसे उन्होंने तुरन्त और खुशी-खुशी उठा लिया। इसके लिए उन्होंने कोई विशेष लाभ भी नहीं माँगा, यद्यपि वे माँगते तो उनको वह देना ही पड़ता -- उसके लिए उनको इनकार नहीं किया जा सकता था ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ३-९-१९०३

३२७. नेटालका गौरव

स्वर्गीय परम माननीय हैरी एस्कम्बकी स्मृतिका सम्मान करके उपनिवेशने अपना ही गौरव बढ़ाया है । गत शनिवारको शहरके उद्यानमें उस स्वर्गीय राजनीति-विशारदकी प्रतिमाका अनावरण उन्हींके मित्र और सहकारीके हाथों हुआ । यह तो उस महापुरुषके प्रति केवल न्याय ही है। ब्रिटिश भारतीयोंको उनके रुखके बारेमें जरूर कई बार शिकायतके अवसर आते रहे हैं; परन्तु उनके बारेमें कभी यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने समझ-बूझकर कोई अन्याय किया। वे ऐसे पुरुष थे ही नहीं, जो अपने सुनिश्चित विश्वासोंके खिलाफ कुछ कर सकें । एक मौका ऐसा आया जब लगभग सारे उपनिवेशकी जनता उनके विरोधमें खड़ी हो गई । उनके दिलमें यह निश्चय हो गया कि अमुक बात सत्य है, बस उसपर अड़ गये । यही नहीं; इसके लिए अपनी सारी प्रतिष्ठा और लोकप्रियताको उन्होंने दाँवपर लगा दिया । (हमारा इशारा वकील-मण्डलके प्रश्नकी ओर है। उसपर उन्होंने एक बार जो रुख धारण किया, बस उसपर अपनी मृत्युके दिनतक डटे ही रहे[१] ) । बादमें इन परम माननीय सज्जनने भारतीयोंके प्रश्नपर अपने विचारोंमें काफी परिवर्तन कर लिया था । अपनी मृत्युसे तीन घण्टे पहले उन्होंने इस बातपर दुःख प्रकट किया कि जब उन्होंने एशियाई-विरोधी कानूनोंको अपनी मंजूरी प्रदान की थी तब वे भारतीय समाजको इतनी अच्छी तरह नहीं जानते थे जैसे अब जानने लगे थे। उन्होंने यह भी आशा प्रकट की कि इस कानूनके कारण भारतीयोंको जो कष्ट होगा वह समय पाकर दूर हो जायेगा। यह उदाहरण हमने केवल उस महापुरुषकी न्यायप्रियता और हृदयकी विशालताको प्रकट करनेके उद्देश्यसे ही दिया है। उनके भारतीय समाजके प्रति दयालुताके काम अनेक थे और उनमें प्रमुख था नेटालके भारतीय स्वयंसेवकोंके नायकों[२]को आशीर्वाद और भोज देनेका उनका ढंग । उनकी इस कृपाके लिए भारतीय समाज उनका सदा कृतज्ञ रहेगा । नायकोंको सम्बोधन करते हुए उन्होंने ये शब्द कहे थे और ये सार्वजनिक रूपसे कहे गये उनके अन्तिम शब्द थे :

लड़ाईके मैदानपर जानेसे पहले आपने मुझे आशीर्वादात्मक दो शब्द कहनेके लिए निमंत्रित किया, इसे मैं अपने लिए एक विशेष सम्मान मानता हूँ। यहाँपर जो लोग उपस्थित हैं आप केवल उन्हींकी नहीं, बल्कि नेटालकी और महारानीके महान् साम्राज्यकी समस्त जनताकी शुभकामनाएँ अपने साथ ले जा रहे हैं । इस महत्त्वपूर्ण लड़ाईमें जो

  1. वकील-मण्डलने १८९४ में रंगभेदके आधारपर सर्वोच्च न्यायालयके एडवोकेटके रूपमें गांधीजीका नाम दर्ज करानेका विरोध किया था । किन्तु इस विरोधके बावजूद महान्यायवादी एस्कम्बने उसका समर्थन किया ।
  2. देखिए "भारतीय आहत सहायक दल,” दिसम्बर १३, १८९९ ।