४६८ सम्पूर्ण गांधी वाङमय दिया है। अब उपनिवेशी सचमुच इस नतीजेपर पहुँच गये हैं कि, अगर प्रत्यक्ष शाही उपनिवेशके अन्दर ब्रिटिश भारतीयोंके लिए अलग बस्तियाँ कायम करने और उनके परवानोंपर अंकुश लगानेका सिद्धान्त मंजूर और पसन्द हो सकता है, तो नेटाल जैसे स्वशासित उपनिवेशमें तो वह और भी अधिक अच्छी तरह लागू किया जा सकता है । परिणाम यह है कि विक्रेता-परवाना अधिनियमपर पूरे जोर-शोर के साथ अमल शुरू हो गया है । यह नेटालके ब्रिटिश भारतीयोंके लिए दूसरे जीवन-संघर्षका शायद आरम्भमात्र है। और अगर हमारा अनुमान सही है तो हम कह सकते हैं कि ब्रिटिश भारतीयोंने श्री चेम्बरलेनकी दक्षिण आफ्रिका यात्रासे रोटीकी आशा की थी; परन्तु उसके बदले में उन्हें पत्थर ही मिल रहे हैं। [ अंग्रेजीसे ] इंडियन ओपिनियन, १०-९-१९०३ ३३१. गुलामसे कॉलेज-अध्यक्ष श्रीमती बेसेंटने कहीं कहा है कि इंग्लैंडकी आज जो प्रतिष्ठा है सो उसके योद्धाओंके कारण नहीं, परन्तु उस राष्ट्र द्वारा किये गये एक महान कार्य - गुलामोंकी मुक्ति – के कारण है। बुकर टी० वाशिंगटनकी जीवन-कथामें यह सत्य बड़े अनूठे ढंगसे चरितार्थ हुआ दिखाई देता है । ईस्ट ऐंड वेस्टके ताजा अंकमें बुकर टी० वाशिंगटनपर श्री रोलाँका एक बड़ा दिलचस्प लेख छपा है, जो हमारे पाठकोंका ध्यान दिलाने लायक है । -- - बुकरका जन्म सन् १८५८ के आसपास हुआ था। जबतक वह गुलाम रहा लोग उसे इसी नाम से जानते थे। अपने जन्मकी सही तारीख और सन्का खुद उसे भी पता नहीं था । श्री रोलाँने लिखा है : " उसकी हालत औसत दर्जेकी थी। श्रीमती बीचर स्टाउने अपने उपन्यासमें जिन पशुतुल्य मालिकोंका जोरदार वर्णन किया है, वैसा उसका मालिक नहीं था । इसलिए उसे वे अत्याचार नहीं सहने पड़े; परन्तु जो मालिक अपने गुलामोंके प्रति दयालु थे वे भी उन्हें तुच्छ जीवों - उपयोगी पालतू पशुओंकी तरह रखते थे । वे मानते थे कि अगर उनसे कसकर काम लेना है तो उन्हें ठीक तरहसे खानेके लिए भी देना जरूरी है । इन पशुओंको दूसरे प्रकारके आराम देना तो वे जरूरी ही नहीं मानते थे । इन आरामोंको वे गरीब जानें भी क्या ?" गुलामों के मुक्त कर दिये जानेकी घोषणा जब हुई तब बुकर-परिवार बागानको छोड़कर शहरमें रहने चला गया। बुकर अनपढ़ था । परन्तु उसे पढ़ने-लिखनेकी - शिक्षित बनने की बड़ी इच्छा थी । इसलिए उसने अंग्रेजी भाषाकी प्रारम्भिक बातोंका अभ्यास शुरू किया और वह एक रात्रि- पाठशालामें जाने लगा। बौद्धिक प्रगतिके इस कठिन काममें बहुतसे गोरे सहायकोंने उसकी मदद की। इसमें से मुख्य जनरल आर्मस्ट्रांग थे, जिन्होंने गृह-युद्धमें बड़ा काम किया था। श्री रोलाँ आगे लिखते हैं: "जनरल आर्मस्ट्रांग एक पैगम्बर-से थे, जिन्होंने अपना सारा जीवन रंगदार जातियोंकी सेवामें अर्पित कर दिया था। वे उनकी जरूरतोंको पूरी तरह जानते थे और उन्होंने हब्शियों और रेड इंडियनोंकी सेवाके लिए सन् १८९८ में हैम्प्टन ( वर्जीनिया) में एक खेतीका तथा अध्यापनका काम सिखानेवाला विद्यालय खोला था, ताकि इन जातियोंके युवक और युवतियाँ इसमें शिक्षा पाकर अपनी जातिमें शिक्षकोंका काम कर सकें । हमारे चरित्र- नायकको बड़ी अभिलाषा थी कि वह इस संस्थामें शिक्षा प्राप्त करे; इसलिए उसने एक फौजी अफसरके यहाँ नौकरी कर ली और जब पास कुछ धन इकट्ठा हो गया तब हैम्प्टनको चल पड़ा । Gandhi Heritage Portal
पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 3.pdf/५१०
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