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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

नगर-परिषदके सामने अपीलकी सुनवाई फिरसे हुई। इस बार कागजातकी नकल दे दी गई। और जब परवाना-अधिकारीसे पूछा गया कि परवाना देनेसे इनकार करनेके और कारण क्या है, तो उसने कहा : “अर्जदार जिस तरहका व्यापार कर रहा है उसकी पर्याप्त व्यवस्था उपनगरों और बस्तियोंमें मौजूद है। उसे डर्बनमें व्यापार करनेका कोई अधिकार नहीं है।" परवाना-अधिकारीका निर्णय बहाल रखा गया। इसके लिए एक परिषद-सदस्यने प्रस्ताव किया कि, "जो परवाने अबतक दिये जा चुके है उनका शतमान आबादीकी जरूरत से ज्यादा है। इस दृष्टिसे परवाना देना अवांछनीय है।" परिषदने इन बातोंका कोई खयाल नहीं किया कि जिस स्थानके लिए परवाना माँगा गया था वहाँ कुछ ही महीने पहले एक दूकानदार मौजूद था। वह डर्बनसे चला गया था, इसलिए परवानोंकी संख्या बढ़ानेका कोई प्रश्न नहीं था। साथ ही, मकान-मालिक भारतीय हैं, उनके भी प्रतिनिधि परिषदमें है, और उन्हें भी हक है कि परिषद उनके हितोंका खयाल करे । सम्बद्ध मकान सिर्फ दूकानके लिए उपयुक्त है। वह आज तक करीब-करीब खाली पड़ा है और इससे उसके मालिकको अबतक ३५ पौंडकी हानि हो चुकी है। प्रार्थी इसके साथ परिषदकी पहली कार्रवाईकी नकल नत्थी कर रहे हैं (परिशिष्ट क)। इससे कार्रवाई-सम्बन्धी भावना स्पष्ट हो जाती है।

मुहम्मद मजम एंड कम्पनीने परवाना अधिकारीको एक ऐसे मकानमें व्यापार करनेके लिए परवानेकी अर्जी दी, जिसके मालिक एक भारतीय सज्जन है। इन सज्जनकी डर्बनमें बहुत- सी मिल्क मुतलक जायदाद है और इनकी आमदनीका मुख्य जरिया ही व्यापारियोंको अपने मकान किरायेपर देना है। परवाना-अधिकारीने परवाना देनेसे इनकार कर दिया। इसके कारण वैसे ही दिये, जैसे ऊपर बताये गये हैं। इसपर मकान-मालिकने परवाना-अधिकारीके निर्णयके खिलाफ नगर-परिषदके सामने अपील की। नगर-परिषदने अपील खारिज कर दी। फलतः मकान-मालिकको अपने मकानका किराया घटा देना पड़ा। और मुहम्मद मजम ऐंड कम्पनी तो बिलकुल कंगाल हो गई है। उसके सब साझेदारोंको पूरी तरह अपने एक साझे- दारके कामपर निर्भर करना पड़ता है। वह साझेदार टीनसाज है।

हाशम मुहम्मदका पेशा फेरी लगाना है। वह पहले भी डर्बनमें फेरीवाला रह चुका है। वह परवाना-अधिकारीके पास और वहाँसे नगर-परिषदके पास गया; परन्तु उसे फेरी लगानेका विशेषाधिकार देनेसे इनकार कर दिया गया। उसने परिषदको बताया कि उसे यह विशेषाधिकार देनेसे इनकार करनेका अर्थ उसे भुखमरीका वरण करनेको कहने के बराबर होगा। वह दूसरे उपायोंसे रोटी कमाने की कोशिश कर चुका है, परन्तु सफल नहीं हुआ। कोई दूसरा काम करने के लिए उसके पास पूंजी नहीं है। उसने परिषदको यह भी बताया कि किसी यूरो- पीयके साथ उसकी कोई स्पर्धा नहीं है; फेरीका काम करना तो करीब-करीब भारतीयोंकी ही विशेषता है और वे उसके वह काम करने पर कोई आपत्ति नहीं करते। परन्तु ये सब मिन्नतें बेकार हुई।

श्री दादा उस्मान' पन्द्रह वर्षसे ज्यादा हो गये, इस उपनिवेशमें हैं। उन्होंने काफी अच्छी अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की है। पहले वे दक्षिण आफ्रिकाकी तत्कालीन प्रमुख व्यापारिक पेढ़ीसे सम्बन्ध रखते थे। अब इस उपनिवेशके अमसिंगा और ट्रान्सवालके फ्राईहाइड नामक स्थानोंमें उनका व्यापार चलता है। इस वर्ष उन्होंने भारतसे अपनी पत्नी और बच्चोंको बुलवाया। परन्तु ऊपरकी दोनों जगहोंमें उनकी पत्नीको उपयुक्त संगी-साथी नहीं मिले। फिर परिवारके आ जानेसे उनका खर्च भी बढ़ गया। इन दोनों दृष्टियोंसे उन्होंने डर्बनमें बसनेका इरादा किया।

१. “दादा उस्मानका मुफदमा," सितम्बर १४, १८९८ ।